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________________ ३०८ जैनसम्प्रदायशिक्षा । ___ १९-पथ्यापथ्य वर्णन में तथा ऋतुचर्या वर्णन में जो कुछ भोजन के विषय में लिखा गया है उस का सदैव ख्याल रखना चाहिये। मुख सुगन्ध । __ पहिले कह चुके हैं कि भोजन के पश्चात् पानी के कुले करके मुग्य को सफ कर लेना चाहिये तथा दाँतों और मसूड़ों को भी खूब शुद्ध कर लेना चाहिये, आजकल इस देश में भोजन के पश्चात् मुख सुगन्ध के लिये अनेक वस्तुओं का उपयोग किया जाता है, सो यदि मुख को पानी आदि के द्वारा ही विलकुल स फ कर लिया जाये तो दूसरी वस्तु के उपयोग की कोई आवश्यकता नहीं रहती है, क्योंकि मुखसुगन्ध का प्रयोजन केवल मुख को साफ रखने का है, जब जलादि के द्वारा मुख और दाँत आदि बिलकुल साफ हो गये तो सुपारी तथा पान चाने आदि की कोई आवश्यकता नहीं है, हां यदि कभी विशेष रुचि वा आवश्यक ता हो तो वस्तुविशेष का भी उपयोग कर लेना चाहिये परन्तु उस की आदत ही डालनी चाहिये। मुखसुगन्ध के लिये अपने देश में सुपारी पान और इलायची आदि मुख्य पदार्थ हैं, परन्तु इस समय में तो घर घर (प्रनिगृह ) चिलम हुक्का और सिगरेट ही प्रधानता के साथ वर्ताव में आते हुए देखे जाते हैं, पूर्व समय में इस देशवाले पुरुप इन में बड़ा ऐब समझते थे, परन्तु अब तो बिछोने से उठते ही यही हरिभजनरूप बन गया है, तथा इसी को अविद्यादेवी के उपासको ने मुखवासक भी ठहरा रक्खा है, यह उन की महा अज्ञानता है, देखो ! मुखर स का प्रयोजन तो केवल इतना ही है कि डाढ़ों तथा दाँतों में यदि कोई अन्न का अंश रह गया हो तो किसी चाबने की चीज़ के चाबने से उस के साथ में वह अन्न का अंश भी चाबा जाकर साफ हो जावे तथा वह ( चाबने की) गोज़ खुशबूदार और फायदेमन्द हो तो मुंह सुवासित भी हो जाये तथा थूक को दा करनेवाली हो तो वह थूक होजरी में जाकर खाये हुए पदार्थ के पचाने में भी सहायक हो जावे, इसी लिये तो उक्त गुणों से युक्त नागर बेल के पान, कपा, चूना, केसर, कस्तूरी, सुपारी, इलायची और भीमसेनी कपूर आदि पदार्थ उपर ग में लिये जाते हैं, परन्तु तमाखू, गांजा, सुलफा और चंडूल से मुम्ब की जैसी सुवास होती है वह तो संसार से छिपी नहीं है, यद्यपि तमाखू में थूक की दा करने का स्वभाव तो है परन्तु वह थूक ऐसा निकृष्ट होता है कि भीतर पहुँचते ही भीतर स्थित तमाम खाये पिये को उसीवस्त निकाल कर बाहर ले आता है, इस १-भोजन का विशेष वर्णन भोजन वागविलास आदि ग्रन्थों में किया गया है, वहां देख लेना चाहिये ।। २-प्रत्याख्यान (पच्चकवाण ) भाष्य की टीका में द्विविधाहार (दुविहार) के निर्णय में मुखवास का भी वर्णन है । ३-चंडल अर्थात् चण्डू (कहना तो इसे चाडूल ही चाहिये)॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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