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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा । किन्तु सोने से दो तीन घण्टे पहिले ही ले लेना चाहिये, ख्योंकि धन्य पुरुष के ही हैं जो कि सूर्य की साक्षी से ही खान पान करके अपने व्रत का निर्वाह करते है । १३-एक थाली वा पत्तल में अधिक मनुष्यों को भोजन करना योग्य नहीं है, क्योंकि-प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव पृथक् २ होता है, देखो ! कोई चाहता है कि मैं दाल भात को मिला कर खाऊँ, किसी की रुचि इस के विरुद्ध होती है, इसी प्रकार अन्य जनों का भी अन्य प्रकार का ही स्वभाव होता है तो इस दशा में साथ में खानेवाले सब ही लोगों को अरुचि से भोजन करना पड़ता है और भोजन में अरुचि होने से अन्द्र अच्छे प्रकार से नहीं पचता है, साथ में खाने के द्वारा अरुचि के उत्पन्न होने से बहुधा मनुष्य भूखे भी उठ बैठते हैं और बहुतों को नाना प्रकार के रोग भी हो जाते हैं, इस के सिवाय प्रत्येक पुरुष के हथ वारंवार मुँह में लगते हैं फिर भोजनों में लगते हैं, इस कारण एक के रोग दूसरे में प्रवेश कर जाते हैं, इस के अतिरिक्त यह भी एक बड़ी ही विचारणीय बात है कि यदि कुटुम्ब का दूरदेशस्थ (जो दूर देश में रहता है वह) कोई एक सम्बन्धी पुरुष गुप्तरूप से मद्य वा मांस का सेवन करता है अथवा व्यभिचार में लिप्त है तो एक साथ खाने पीने से अन्य मनुष्यों की भी पवित्रता में धब्बा लग जाता है, शास्त्रों में जुटे भोजन का करना महापाप भी कहा है और यह सत्य भी है क्यों के इस से केवल शारीरिक रोग ही उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु यह बुद्धि को अउ द्व कर उस के सम्पूर्ण बल का भी नाश कर देता है, प्रत्यक्ष में ही देख लीजिये विजो मनुष्य जूठा भोजन खाते हैं उन के मस्तक गन्दे (मलिन) होते हैं कि जिस से उन में सोच विचार करने का स्वभाव बिलकुल ही नहीं रहता हैं, इस का कारण यही है कि जूटा भोजन करने से स्वच्छता का नाश होता है और जहां स्वच्छता दा शुद्धता नहीं है वहां भला शुद्धबुद्धि का क्या काम है, जूठा खानेवालों की बुद्धि मोटी हो जाने से उन में सभ्यता भी नहीं देखी जाती है, इन्हीं कारणों से धर्मशास्त्रों में भी जूठा खाने का अत्यन्त निषेध किया है, इसलिके अर्य पुरुषों का यही धर्म है कि-चाहें अपना लड़का ही क्यों न हो उस को भी जा भोजन न दें और न उस का जूठा आप खावें, सत्य तो यह है कि जूंठ और झं, इन दोनों का बाल्यावस्था से ही त्याग कर देना उचित है अर्थात् बचपन से हो झंट वचन और जूंठे भोजन से घृणा करना उचित है, बहुधा देखा जाता है कि - हमारे स्वदेशीय बन्धु (जो न तो धर्मशास्त्रों का ही अवलोकन करते हैं और । कभी उन को किसी विद्वान् से सुनते हैं वे ) अपने छोटे २ बच्चों को अपने सार में भोजन कराने में उन का जूठा आप खाने में तथा अपना पिया हुआ पाने उन्हें पिलाने में बड़ा ही लाड़ समझते हैं, यह अत्यंत ही शोक का विषय है कि ये महानिन्दित कर्म को लाड़ प्यार वा अपना धर्म कार्य समझें तथा उन (बच्चों) -निर्फ यही हेनु है कि कोड़ी को कोई भी अपने माथ में भोजन नहीं कराता है ॥२-क्यों के सभ्यता शुद्धबुद्धि का फल है, उन की वृद्धि शुद्ध न होने से उनके पास सभ्यता कहां? ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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