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________________ चतुर्थ अध्याय । ३०१ की जगह, सोने की जगह, बैठने की जगह, धर्मध्यान करने की जगह तथा स्नान करने की जगह, ये सब स्थान अलग २ होने चाहियें तथा इन स्थानों में चांदनी भी बांधना चाहिये कि जिस से मकड़ी और गिलहरी आदि जहरीले जानवरों की र और मल मूत्र आदि के गिरने से पैदा होनेवाले अनेक रोगों से रक्षा रहे । २- रसोई बनाने के सब वर्तन साफ रहने चाहियें, पीतल और तांबे आदि धातु के बासन में खटाई की चीज़ बिलकुल नहीं बनानी चाहिये और न रखनी चाहिये, मिट्टी का बासन सब से उत्तम होता है, क्योंकि इस में खटाई आदि किसी प्रकार की कोई वस्तु कभी नहीं बिगड़ती है । ३ - भोजन का बनानेवाला ( रसोइया ) वैद्यक शास्त्र के नियमों का जाननेवाला तथा उसी नियम से भोजन के सब पदार्थों का बनानेवाला होना चाहिये, सामान्यतया रसोई बनाने का कार्य गृहस्थों में स्त्रियों के ही आधीन होता है इसलिये स्त्रियों को भोजन बनाने का ज्ञान भच्छे प्रकार से होना आवश्यक है । ४ - भोजन करने का स्थान भोजन बनाने के स्थानसे अलग और हवादार होना चाहिये, उस को अच्छे प्रकार से सफेदी से पुतवाते रहना चाहिये, तथा उस में For प्रकार की सुगन्धित मनोहर और अनोखी वस्तुयें रखी रहनी चाहियें जिन के देखने से नेत्रों को आनंद तथा मन को हर्ष प्राप्त होवे । ५- भोजन बनाने के सब पदार्थ ( आटा दाल और मसाले आदि ) अच्छी तरह चुबीने ( साफ किये हुए) हों तथा ऋतु के अनुकूल हों और उन पदार्थों को ऐसा पकाना चाहिये कि न तो अधकच्चे रहें और न विशेष जलने पावें, क्योंकि कच्चा तथा जला हुआ भोजन बहुत हानि करता है, उस में भी मन्दाग्भिवालों के लिये तो उक्त ( अधकच्चा तथा जला हुआ ) भोजन विष के समान है । ६ - भोजन सदा नियत समय पर करना उचित है, क्योंकि ऐसा करने से भोजन ठीक समय पर पचकर भूख को लगाता है, भोजन करने के बाद पांच घंटे तक फिर भोजन नहीं करना चाहिये, एवं अधूरी भूख में तथा अजीर्ण में भी भोजन नहीं करना चाहिये, इस के सिवाय हैज़ा और सन्निपात में तो दोष के पके विना ( जबतक वातादि दोष पक नजावें तबतक ) भोजन करना मानो मौत की निशानी है, अच्छी तरह से भूख लगने के बाद भूख को मारना भी नहीं चाहिये, क्योंकि भूख लगने के बाद न खाने से विना ईंधन की अग्नि के समान शरीर की अभि बुझ जाती है, इस लिये प्रतिदिन नियमित समय पर ही भोजन करना अतिउत्तम है । ७- भोजन करने के समय मन प्रसन्न रहे ऐसा यत्न करना चाहिये अर्थात् मन में खेद ग्लानि और क्रोध आदि विकार किसी प्रकार नहीं होने चाहियें, चारों ओर १ - ऊपर कही हुई दोनों बातों में सावधान रहना चाहिये नहीं तो अवश्य हानि होती है ॥ २--जैसे किसी लकड़ीमें लगी हुई अग्नि को जब दूसरी लकड़ी नहीं मिलती हैं तब वह अ उन लकड़ी को जला कर बुझ जाती है, इसी प्रकार से आहार के न मिलने से शरीर की अनि बुस जाती है ॥ ३ खेद आदि को उत्पन्न करनेवाली वस्तु को नहीं देखना चाहिये और न कोई ऐसी बात सुननी वा करनी चाहिये ॥ २६ ज० सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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