SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९२ जैनसम्प्रदायशिक्षा । तथा पेडू पीठ और पेट आदि में दर्द होने लगता है, केवल इतना ही नहीं किन्तु मल के रोकने से अनेक उदावर्त्त आदि रोगों की उत्पत्ति होती है, इस लिये मल और मूत्र के वेग को भूल कर भी नहीं रोकना चाहिये, इसी प्रकार छींक प्रकार हिचकी और अपान वायु आदि के वेग को भी नहीं रोकना चाहिये, क्योंकि इन के वेग को रोकने से भी अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है । मलमूत्र के त्याग करने के पीछे मिट्टी और जल से हाथ और पांवों को भी खूब स्वच्छता के साथ धोकर शुद्ध कर लेना चाहिये । मुखशुद्धि । यदि प्रत्याख्यान हो तो उस की समाप्ति होने पर मुख की शुद्धि के लिये नीम, खैर, बबूल, आक, पियाबांस, आमला, सिरोहा, करञ्ज, बट, महुआ और मौलसिरी आदि दूधवाले वृक्षों की दाँतोन करे, दाँतोन एक बालिस्त लंबी और अंगुली के बराबर मोटी होनी चाहिये, उस की छालमें कीड़ा या कोई विकार नहीं होना चाहिये तथा वह गाँठदार भी नहीं होनी चाहिये, दाँतोन कर के पीछे सेंधानमक, सोंठ और भुना हुआ जीरा, इन तीनोंको पीस तथा कपड़ छान कर रक्खे हुए मञ्जन से दाँतों को माँजना चाहिये, क्योंकि जो मनुष्य दाँतो नहीं करते हैं उन के मुँह में दुर्गन्ध आने लगती है और जो दिन मञ्जन नहीं लगाते हैं उन के दाँतों में नाना प्रकार के रोग हो जाते हैं अर्थात् कभी २ बादी के कारण मसूड़े फूल जाते हैं, कभी २ रुधिर निकलने लगता है और कभी २ दाँतों में दर्द भी होता है, दाँतों के मलिन होने से मुख की छवि गढ़ जाती है तथा मुख में दुर्गन्ध आने से सभ्य मण्डली में ( बैठने से ) निन्दा होती है, इस लिये दाँतोन तथा मञ्जन का सर्वदा सेवन करना चाहिये, तत्पश्चात् स्वच्छ जल से मुख को अच्छे प्रकार से साफ करना चाहिये परन्तु नेत्रों को गर्म जल से कभी नहीं धोना चाहिये क्योंकि गर्म जल नेत्रों को हानि पहुँचाता है । दाँतोन करने का निषेध - अजीर्ण, वमन, दमा, ज्वर, लकवा, अधिक प्यास, मुखपाक, हृदयरोग, शीर्षरोग, कर्णरोग, कंठरोग, ओष्ठरोग, जिहारोग, हिचकी और खांसी की बीमारीवाले को तथा नशे में दाँतोन नहीं करना चाहये । दाँतो के लिये हानिकारक कार्य-गर्म पानी से कुले करना, अधिक गर्म रोटी को खाना, अधिक बर्फ का खाना या जल के साथ पीना और गर्म चीज़ खाकर शीघ्र ही ठंडी चीज़ का खाना या पीना, वे सब कार्य दाँतों को शीघ्र ही विगाड़ देते हैं तथा कमजोर कर देते हैं इस लिये इन से बचना चाहिये । १-भूख, प्यास, छींक, डकार, मल का वेग, मूत्र का वेग, अपानवायुका वेग, जम्भा (जनुहारी), आंसू, वमन, वीर्य ( कामेच्छा ), श्वास और निद्रा, ये १३ वेग शरीर में स्वाभाविक उत्पन्न होते हैं, इसलिये इन के वेग को रोकना नहीं चाहियें, क्योंकि इन वेगों के रोकने से उदावर्त आदि अनेक रोग होते हैं, ( देखो वैद्यक ग्रन्थों में उदावर्त रोग का प्रकरण ) ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy