SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय । २७५ दोहा-ऋतू लगन में आठ दिन, जब हो. उपचार । त्यागि पूर्व ऋतु को अगिल, वरतै ऋतु अनुसार ॥२॥ अर्थात् मेष और वृप की सङ्क्रान्ति में ग्रीष्म ऋतु, मिथुन और कर्क की सङ्क्रान्ति में प्रावृट् ऋतु, सिंह और कन्या की संक्रान्ति में वर्षा ऋतु, तुला और वृश्चिक की सङ्क्रान्ति में शरद् ऋतु, धन और मकर की सङ्क्रान्ति में हेमन्त ऋतु, ( हेमन्त ऋतु में जब मेघ बरसे और ओले गिरें तथा शीत अधिक पड़े तो वही हेमन्त ऋतु शिशिर ऋतु कहलाती है) तथा कुम्भ और मीन की सङ्क्रान्ति में वसन्त ऋतु होती है ॥ १॥ जब दूसरी ऋतु के लगने में आठ दिन बाकी रहें तब ही से पिछली (गत) ऋतु की चर्या (व्यवहार) को धीरे २ छोड़ना और अगली (आगामी) ऋतु की चर्या को ग्रहण करना चाहिये ॥२॥ यद्यपि ऋतु में करने योग्य कुछ आवश्यक आहार विहार को ऋतु स्वयमेव मनुष्य से करा लेती है, जैसे-देखो ! जब ठंढ पड़ती है तब मनुष्य को स्वयं ही गर्म वस्त्र आदि वस्तुओं की इच्छा हो जाती है, इसी प्रकार जब गर्मी पड़ती है तब महीन वस्त्र और ठंढे जल आदि वस्तुओंकी इच्छा प्राणी स्वतः ही करता है, इल के अतिरिक्त इंग्लैंड और काबुल आदि ठंढे देशों में (जहां ठंढ सदा ही अधिक रहती है ) उन्हीं देशों के अनुकूल सब साधन प्राणी को स्वयं करने पड़ते हैं, इस हिन्दुस्थान में ग्रीष्म ऋतु में भी क्षेत्र की तासीर से चार पहाड़ बहुत ठंडे रहते हैं-उत्तर में विजयाध, दक्षिण में नीलगिरि, पश्चिम में आबूराज और पूर्व में दार्जिलिंग, इन पहाड़ों पर रहने के समय गर्मी की ऋतु में भी मनुष्यों को शीत ऋतु के समान सब साधनों का सम्पादन करना पड़ता है, इस से सिद्ध है कि-ऋतु सम्बन्धी कुछ आवश्यक बातों के उपयोग को तो ऋतु स्वयं मनुष्य से करा लेती है तथा ऋतुसम्बन्धी कुछ आवश्यक बातों को सामान्य लोग भी थोड़ा बहुत समझते ही हैं, क्योंकि यदि समझते न होते तो वैसा व्यवहार कभी नहीं कर सकते थे, जैसे देखो ! हवा के गर्म से शर्द तथा शर्द से गर्म होने रूप परिवर्तन को प्रायः सामान्य लोग भी थोड़ा बहुत समझते हैं तथा जितना समझते हैं उसी के अनुसार यथाशक्ति उपाय भी करते हैं परन्तु ऋतुओं के शीत और उपणरूप परिवर्तन से शरीर में क्या २ परिवर्तन होता है और छःओं ऋतुयें दो २ मास तक वातावरण में किस २ प्रकार का परिवर्तन करती हैं, उस का अपने शरीर पर कैसा असर होता है तथा उस के लिये क्या २ उपयोगी वर्ताव (आहार विहार आदि) करना चाहिये, इन बातों को बहुत ही कम लोग समझते हैं, इस लिये छःओं ऋतुओं के आहार विहार आदि का संक्षेप से यहां १-इस पर्वत को इस समय लोग हिमालय कहते हैं ॥ २-कालान्तर में इन पर्वतों की यदि तासीर बदल जावे तो कुछ आश्चर्य नहीं है ॥ ३-इस का विस्तारपूर्वक वर्णन दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में देख लेना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy