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________________ २४८ जैनसम्प्रदायशिक्षा। करती है, वहुत चाय के पीने से मगज़ में तथा मगज़ के तन्तुओं में शिथिलता हो जाती है, निर्बलता में अधिक चाय के पीने से भ्रान्ति और भूलने का रोर हो जाता है, लोग यह भी कहते हैं कि-चाय खून को जला देती है यह बात कुछ सत्यभी मालूम होती है, क्योंकि-चाय अत्यन्त गर्म होती है इसलिये उन से खून का जलना संभव है, चाय को सदा दूध के साथ ही पीना चाहिये, व्योंकि दूधके साथ पीनेसे चाय का नशा कम होता है, पोपण मिलता है तथा वह गर्मी भी कम करती है, बहुत से लोग भोजन के साथ चाय को पीते हैं । यह हानिकारक है, क्योंकि उससे पाचनशक्ति में अत्यन्त बाधा पहुँचती है इसलिये भोजन के पीछे तीन चार घण्टे बीत जानेपर चाय को पीना चाहिये, देखो ' चाय पित्त को बढानेवाली है इसलिये भोजन से तीन चार घण्टे के बाद जो गोजन का भाग पचना बाकी रह गया हो वह भी उस चाय के द्वारा उत्पन्न हुए पित्त से पचकर नीचे उतर जाता है, चाय में थोड़ा सा गुण यह भी है कि वह पक्वाशय ( होजरी) को तेज़ करती है, पाचनशक्ति तथा रुचि को पैदा करती है, चमड़ी तथा मत्राशय पर असर कर पसीने तथा पेशाव को खुलासा लाती है जिस से रखून पर कुछ अच्छा असर होता है, शरीर के भागों की शिथिलता और थकावट को दूर कर उन में चेतनता लाती है, परन्तु चाय में नशा होता है इससे वह तनदुरुम्ती मे बाधा पहुँचाती है, ज्यों २ चाय को अधिक देर तक उब ल कर पत्तों का अधिक कस निकाल कर पिया जावे त्यों २ वह अधिक हानि करती है, इस लिये चाय को इस प्रकार बनाना चाहिये कि पतीली में जल को कहे पर चढ़ादिया जावे जब वह (पानी ) खूब गर्म होकर उबलने लगे तब चाय पत्तों को डाल कर कलईदार ढक्कन से ढक देना चाहिये और सिर्फ दो तीन मिन्ट तक उसे चूल्हेपर चढ़ाये रखना चाहिये, पीछे उतार कर छान कर दूध तथा मीठा मिलाकर पीना चाहिये, अधिक देर तक उबालने से चाय का स्वाद और गुण दोनों जाते रहते हैं, चाय में खांड या मिश्री आदि मीठा भी परिमाण से ही डालना चाहिये, क्योंकि अधिक मीठा डालने से पेट बिगड़ता है, बहुत ले ग चाय में नींबू का भी कुछ स्वाद देते हैं उस की रीति यह है कि-कलई या काचके वर्तन में नींबू की फांस रख कर ऊपर से चाय का गर्म पानी डाल देना चाहिये, चार पांच मिनट तक वैसा ही रख कर पीछे दुसरे वर्तन में ठान लेना चा हेये। ___ चाय में यद्यपि बहुत फायदा नहीं है परन्तु संसार में शौकीनपने का हवा घर २ में फैलगई है इसलिये चाय का तो सब को एक व्यसन सा हो गया है, अर्थात् एक दूसरे की देखादेखी सब ही पीने लगे हैं, परन्तु इस से बड़ा पुकसान है, क्योंकि लोग चाय में जो विशेष गुण समझते हैं वे उस में बिलकुल नहीं हैं, इसलिये आवश्यकता के समय में दूध और वृरा आदि के साथ इस को थाड़ा सा पीना चाहिये, प्रतिदिन चाय का पीना तो तर माल खानेवाले अंग्रेज और पारसी आदि लोगों के लिये अनुकूल हो सकता है, किन्तु जो लोग प्रतिदिन घी का दर्शन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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