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जैन सम्प्रदायशिक्षा |
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करते थे तो भी परदेशों में हज़ारों मन जाती थी, देखो ? सन् १८२६ ई० तक प्रतिवर्ष दो करोड़ रुपये की चीनी यहां से परदेश को गई है, ईसबी चौदहवीं शताब्दी ( शादी ) तक युरोप में इस का नाम निशान तक नहीं था, इस के पीछे गुड़ चीनी और मिश्री यहां से वहां को जाने लगी ।
पूर्व समयमें यहां हजारों ईख के खेत बोये जाते थे, लकड़ी के चरखे से ईख का रस निकाला जाता था और पवित्रता से उस का पाक बन कर मधुर पर्करा बनती थी, ठौर २ शर्करा बनाने के कारखाने थे तथा भोले भाले किसान अत्यन्त श्रमपूर्वक शर्करा बना कर अपने २ इष्ट देव को प्रथम अर्पण कर पीछे उसका विक्रय करते थे, अहाहा ! क्या ही सुन्दर वह समय था कि जिस में इस देश के निवाली उस पवित्र मधुर और रसमयी शर्करा का सुस्वाद यथेच्छ लूटते थे और क्या ही अनुकूल वह समय था कि जिस में इस देश की लक्ष्मी स्वरूप स्त्रिय उस पवित्र मधुर और रसमयी शर्करा के उत्तमोत्तम पदार्थ बना कर अपने पति और पुत्रों आदि को आदर सहित अर्पण करती थीं, परन्तु हा ! अब तो न वह शुभ समय ही रहा और न वह पवित्र मधुर रसमयी आयुवर्धक और पौष्टिक शर्करा ही रही ! ! !
आज से हज़ार बारह सौ वर्ष पहिले इस अभागे भारत पर यद्यपि यवनादिकों का असह्य आक्रमण होता रहा तथापि अपवित्र परदेशीं वस्तुओं का यहां प्रचार नहीं हुआ, यद्यपि यवन लोग यहां से करोड़ों का धन लेगये परन्तु अपने देश की वस्तुओं की यहां भरभार नहीं कर गये किन्तु यहीं से अच्छी २ चीज़ बनव कर अपने देश को लेगये परन्तु जब से यह देश स्वातंत्र्यप्रिय न्यायशील टिश गवर्नमेंट के हाथ में गया तब से उन के देशों की तथा अन्य देशों की असंख्य मनोहर 'सुन्दर और सस्ती चीजें यहां आकर यह देश उन से व्याप्त होगया, बनी बनाई सुन्दर और सस्ती चीज़ों के मिलते ही हमारे देश के लोग अधिकता ने उन को खरीदने लगे और धीरे २ अपने देश की चीज़ों का अनादर होने लगा, जिस को देख कर बेचारे किसान कारीगर और व्यापारी लोग हतोत्साह होकर उद्योगहीन होगये और देशभर में परदेशी वस्तुओं का प्रचार होगया ।
ऐसी दशा में इस देश के कारी
यद्यपि हमारी न्यायशीला त्रृटिश गवर्नमेंट ने गरों को उत्तेजन देने के लिये तथा देश का व्यापार बढ़ाने के लिये करी दफ्तरों में और प्रत्येक सर्कारी काम में देशी वस्तु के प्रचार करने की आज्ञा देकर इस देश के सौभाग्य को पुनः बढ़ाना चाहा, जिस के लिये हम सबों के उक्त न्यायशील गवर्नमेंट को अनेकानेक धन्यवाद शुद्ध अन्तःकरण से देने चाहियें, परन्तु क्या किया जावे ? हमारे देश के लोग दारिद्र्य से व्यात होकर हतोत्साह बनने के कारण उस से कुछ भी लाभ न उठा सके ।
कारीगरी और व्यापार की वस्तुयें तो दूर रहीं किन्तु हमारे खानपान की चीजें भी परदेश कीही पसन्द होने लगी और बना बनाया पक्वान्न दुग्ध और शर्व रा भी
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