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________________ चतुर्थ अध्याय । २२५ सूखे आँवले में काली मिर्च मिलाकर चैत्र तथा आश्विन मास में भोजन के पीछे उस की फँकी बीकानेर आदि के निवासी मारवाड़ी लोग प्रायः हरेक रोग में लेते हैं परन्तु उन लोगों को वह अधिक गुण नहीं करता है, इस का कारण यह है कि उन लोगों में तेल और लाल मिर्चका उपयोग बहुत ही है किन्तु कभी कभी उलटी हानि हो जाती है, यदि हरे अथवा सूखे आँवलों का सेवन युक्ति से किया जावे तो इस के समान दूसरी कोई ओषधि नहीं है आँवले के सेवन की यद्यपि अनेक युक्तियां हैं परन्तु उन में से केवल एक युक्ति को लिखते हैं, वह युक्ति यह है किसूखे आँवले को हरे आँवले के रस की अथवा सूखे आँवले क्वाथैकी एक सौ वार भावना देकर सुखाते रहना चाहिये, इसके बाद उस का सेवन कर ऊपर से दूध पिना चाहिये, ऐसा करने से वह अकथनीय लाभ करता है अर्थात् इस के गुणों की संख्या का वर्णन करनेमें लेखनी भी समर्थ नहीं है, इस के सेवन से सब रोग नष्ट हो जाते हैं, तथा बुढ़ापा बिलकुल नहीं सताता है, इस का सेवन करने के समय में गेहूँ, घी, बूरा, चावल और मूंग की दाल को खाना चाहिये । के इस के कच्चे फल भी हानि नहीं करते हैं तथा इस का मुरब्बा आदि सदा खाया जावे तो भी अति लाभकारी ही है । नारङ्गी ( सन्तरा ) - मधुर, रुचिकर, शीतल, पुष्टिकारक, वृष्य, जठराग्निप्रदीपक, हृदय को हितकारी, त्रिदोषनाशक और शूल तथा कृमि का नाशक है, मन्दाग्नि, श्वास वायु, पित्त, कफ, क्षय, शोष, अरुचि और वमन आदि रोगों में पथ्य है, इस का शर्बत गर्मी में प्रातःकाल पीने से तरावट बनी रहती है तथा अधिक प्यास नहीं लगती है । नारंगी की मुख्य दो जातियां हैं -खट्टी और मीठी, उन में से खट्टी नारंगी को नहीं खाना चाहिये, इस के सिवाय इस जंभीरी आदि भी कई जातियां हैं, नागपुर (दक्षिण) का सन्तरा अत्युत्तम होता है । वाख वा अंगूर - गीली दाख खट्टी और मीठी होती है तथा इस की काली और सफेद दो जातियां हैं, बम्बई नगर के काफर्ड मार्केट में यह हमेशा मनों मिलती है तथा और भी स्थानों में अंगूर की पेटियां बिकती हैं, खट्टी दाख खाने से अवगुण करती है, इस लिये उसे नहीं खाना चाहिये, हरी दाख कफ करती है इस लिये थोड़ा सा सेंधानमक लगा कर उसे खाना चाहिये, सब मेवाओं में दाख भी एक उत्तम मेवा है, सूखी मुनक्का अर्थात् काली दाख सब प्रकार की प्रकृतिवाले पुरुषों के अनुकूल और सब रोगों में पथ्य, १- वहां के लोग मिर्च इतनी डालते हैं कि शाख और दालमें केवल मिर्च ही दृष्टिगत होती है तथा कभी कभी मिर्चकाही शाक बना लेते हैं ।। २-जहांतक होसके हरे आँवले के रस की ही भावना देनी चाहिये, क्योकि सूखे आँवले के काथ की भावना की अपेक्षा यह (हरे आँवले के रस की भावना) अधिक लाभदायक है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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