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________________ २१४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। ऐसा दूध हानि करता है, दूहने के तीन घड़ीके पीछे भी यदि दूध को गर्म न किया जाये तो वह हानिकारक हो जाता है इस दूध को बासा दूध भी माना गया है, यदि दुहा हुआ दूध दुहने के पीछे पांच घड़ी तक कच्चा ही पड़ा रहे और पीछे खाया जावे तो वह अवश्य विकार करता है अर्थात् वह अनेक प्रकार के रोगों का हेतु हो जाता है, दूध के विषय में एक आचार्य का यह भी कान है कि-गर्म किया हुआ भी दूध दश घड़ी के बाद बिगड़ जाता है, इसी प्रकार जैन भक्ष्याभक्ष्य निर्णयकार ने भी कहा है कि-'दुहने के सात घण्टे के बाद दूध (चाहे वह गर्म भी कर लिया गया हो तथापि) अभक्ष्य हो जाता है, और विचार कर देखने से यह बात ठीक भी प्रतीत होती है, क्योंकि सात घण्टे के बाद दृध अवश्य खट्टा हो जाता है, इस लिये दुहने के पीछे या गर्म करने के पीछे बहुत देर तक दूध को नहीं पड़ा रखना चाहिये। प्रातःकाल का दूध सायंकाल के दूध से कुछ भारी होता है, इस का कारण यह है कि रात को पशु चलते फिरते नहीं हैं इस लिये उन को परिश्रम नहीं मिलता है और रात ठंडी होती है इसलिये प्रातःकाल का दूध भारी होता है तथा सायंकाल का दूध प्रातःकाल के दूध से हलका होने का कारण यह है कि दिन को सूर्य की गर्मी के होने से और पशुओं को चलने फिरने के द्वारा परिश्रन प्राप्त होने से सायंकाल का दूध हलका होता है, इस से यह भी गिद्ध होता किसदा बंधे रहनेवाले पशुओं का दूध भारी और चलने फिरनेवाले पशुओं क दूध हलका तथा फायदेमन्द होता है, इस के सिवाय जिन की वायु तथा का की प्रकृति है उन लोगों को तो सायंकाल का दूध ही अधिक अनुकूल आता है। पोषण के सब पदार्थों में दूध बहुत उत्तम पदार्थ है, क्योंकि-उस में पोपण के सब तत्व मौजूद है, केवल यही हेतु है कि-बीमारसिद्ध और योगी लोग बरसों तक दूध के द्वारा ही अपना निर्वाह कर आरोग्यता के साथ अपना जीवन बिताते है, बहुत से लोगों को दूध पीने से दस्त लग जाते हैं और बहुतों को क जी हो जाती है, इस का हेतु केवल यही है कि-उन को दूध पीने का अभ्यास न होता है परन्तु ऐसा होने पर भी उन के लिये दूध हानिकारक कभी नहीं समझना चाहिये, क्योंकि केवल पांच सात दिनतक उक्त अड़चल रह कर पीछे वह आप ही शान्त हो जाती है और उन का दूध पीने का अभ्यास पड़ जाता है जिस से आगे को उन की आरोग्यता कायम रह सकती है, यह बिलकुल परीक्षा की हुई बात १-सर्वज्ञ के वचनामृत सिद्धान्त में दुहने से दो बड़ी के बाद कच्चे दूध को अभ६ । लिखा है तथा जिन का रंग, स्खूशबू, स्वाद और रूप बदल गया हो ऐसी खाने पीने की सब । चीजों को अभक्ष्य कहा है, इसलिये ऊपर कही हुई बात का खयाल सब वस्तुओं में रखना चाहिये, क्योंकि ऐ.सी अभय वस्तुयें अवश्य ही रोग का कारण होती हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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