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________________ २०४ जैनसम्प्रदायशिक्षा । कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य ने निघण्टुराजमें पदार्थों के गुण और अवगुण लिखे हैं वे सब मुख्यतया बनाने की क्रिया में तो रहते ही हैं यह नो एक सामान्य बात है परन्तु संस्कार के अदल बदल (फेरफार ) से भी गुणों में अदल बदल हो जाता है, उदाहरण के लिये पाठक गण समझ सकते हैं कि-पुराने चावलों का पकाया हुआ भात हलका होता है परन्तु उन्हीं के चुरमुरे आदि बहुत भारी हो जाते हैं, इसी प्रकार उन्हीं की बनी हुई खिचड़ी भारी, कफ पित्त कों उत्पन्न करनेवाली, कठिनता से पचनेवाली, बुद्धि में बाधा डालनेवाली तथा दम्त और पेशाब को बढानेवाली है, एवं थोड़े जल में उन्हीं चावलों का पकाया हुआ भात शीघ्र नहीं पचता है किन्तु उन्हीं चावलों का अच्छी तरह धोकर पँचगुने पानीमें खूब सिजा कर तथा मांड निकाल कर भात बनाने से वह बहुत ही गुणकारी होता है, इसी प्रकार खिचड़ी भी धीमी २ आंच से बहुत देरतक पका कर बनाई जाने से ऊपर लिखे दोपों से रहित हो जाती है। चने चंबले और मौठ आदि जो २ अन्न वातकर्ता हैं तथा जो २ दुसरे अन्न दुप्पाक ( कठिनता ले पचनेवाले) हैं वें भी घी के साथ खाये जाने से उत्त दोषों से रहित हो जाते हैं अर्थात् वायु को कम उत्पन्न करते और जल्दी पच जाते हैं । मारवाड़ देश के बीकानेर और फलोधी आदि नगरों में सब लोग आ वातीज (अक्षयतृतीया अर्थात् वैशाखसुदि तीज) के दिन ज्वार का खीचड़ा और उस के साथ बहुत घी खाकर ऊपर से इमली का शवत पीते हैं क्योंकि आखाज को नया दिन समझ कर उस दिन वे लोग इसी खुराक का खाना शुभ और लाभदायक समझते हैं, सो यद्यपि यह खुराक प्रत्यक्ष में हानिकारक ही प्रतीत होती है तथापि वह प्रकृति और देश की तासीर के अनुकूल होने से ग्रीष्म ऋतु में भी उन को पचजाती है परन्तु इस में यह एक बड़ी खराबी की बात है कि बहुत से अज्ञ लोग इस दिन को नया दिन समझ कर रोगी मनुष्य को भी वही खुराक वाने को दे देते हैं जिस से उस बेचारे रोगी को बहुत हानि पहुँचती है इसलिये उन लोगों को उचित है कि-रोगी मनुष्य को वह ( उक्त) खुराक ल कर भी न देखें। शाक वर्ग। नित्य की खुराक के लिये शाक (तरकारी ) बहुत कम उपयोगी है, क्योंकिसब शाक दम्त को रोकनेवाले, पचने में भारी, रूक्ष, अधिक मल को पैदा करनेवाले, पवन को बढ़ानेवाले, शरीर के हाड़ों के भेदक, आंख के ज को १-इस को बीकानेरनिवासी अमलवाणी कहते हैं ।। २-श्रीऋषभदेवजी ने तो इस देन सांठे अर्थात् अन्य का रस पिया था जिस रस को श्रेयांस नामक पड़पोते ने वर्ष भर के भूखे को सुपात्र दान देकर अक्षय सुख का उपार्जन किया था, उसी दिन से इस का नाम अक्षयतृतीया हुआ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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