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________________ २०२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। मूंग की दाल तथा उस का जल प्रायः सब ही रोगों में पथ्य है और दूध की गर्ज ( आवश्यकता) को पूर्ण करता है, किन्तु विचार कर देखा जाये तो यह दूध की अपेक्षा भी अधिक गुणकारक है, क्योंकि नये सन्निपात ज्वर में दूध की मनाई हैं परन्तु उस में भी मूंग की दाल का पानी हितकारी है, एवं बहुत दिनों के उपवास के पारने में भी यही पानी हितकारी है. साबत मूंग वायु करता है, यदि मूंग की दाल को कोरे तवे पर कुछ सेक कर फिर विधिपूर्वक सिज कर बनाया जावे तो वह बिलकुल निर्दोष होजाती है यहां तक कि पूर्व और दक्षिण के देशों में तथा किसी भी बीमारी में वह वायु नहीं करती है, यद्यपि मूंग की बहुत सी जातियां हैं परन्तु उन सब में हरे रंग का मूंग गुणकारी है। __ अरहर-मीठी, भारी, रुचिकर, ग्राही, ठंढी और त्रिदोपहर है, परन्तु कुट वायु करती है। उपयोग-रक्तविकार, अर्श (मस्सा), ज्वर और गोले के रोग में फायदेमन्द है। दक्षिण और पूर्व के देशों में इस की दाल का बहुत उपयोग होता है और उन्हीं देशों में इस की उत्पत्ति भी होती है; अरहर की दाल और घी मिलाकर चावलों के खाने से वे वायु नहीं करते हैं, गुजरातवारे. इस की दाल में कोकम और इमली आदि की खटाई डाल कर बनाते हैं तथा कोई लोंग दही और गर्म मसाला भी डालते हैं इस से वह वायु को नहीं करनी है, दाल से बनी हुई वस्तु में कच्चा दही और छाछ मिला कर खाने से टक के स्पर्शसे दो इन्द्रियवाले जीव उत्पन्न होते हैं इसलिये वह अभक्ष्य है और अभक्ष्य वस्तु रोग कर्ता होती है, इस लिये द्विदल पदार्थों की कढ़ी और राइता आदि बनाना हो तो पहिले गोरस (दही वा छाछ आदि) को बाफ निकलने तक गर्म कर के फिर उस में बेसन आदि द्विदल अन्न मिलाना चाहिये तथा दही खिचड़ी भी इसी प्रकार से बना कर खानी चाहिये जिस से कि वह रोगकर्ता न हो। पाकविद्या का ज्ञान न होने से बहुत से लोग गर्म किये बिना ही दर्ह और छाछ के साथ खिचड़ी तथा खीचड़ा खा लेते हैं वह उन के शरीर को बहुत हानि पहुंचाता है, इस लिये जैनाचार्योंने रोगकर्ता होने के कारण २२ बहुत बड़े अभक्ष्य बतला कर उन का निषेध किया है तथा उन का नाम अतीचार सूत्र में लिख बतलाया है उसका हेतु केवल यही प्रतीत होता है कि उन का स्मरण सदा सव को बना रहे, परन्तु बड़े शोक का विषय है कि इस समय में हमारे बहुत से प्रिय जैन बन्धु इस बातको बिलकुल नहीं समझते हैं । उडद-अत्यन्त पुष्ट, वीर्यवर्धक, मधुर, तृप्तिकारक, मूत्रक (पेशाब १-जिस अन्न की दो फांके हों उस अन्न को द्विदल कहते हैं, ऐसे अन्न को गोरस अर्थात् दही और छाछ आदि के साथ गर्म किये विना खाना जैनागम में निपिद्ध है अर्थात् स को अभक्ष्य लिखा है। www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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