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________________ १९८ जैनसम्प्रदायशिक्षा | इस के अति सेवन से यह - दन्तहर्ष ( दाँतों का जकड़ जाना ), नेत्रबन्ध ( आँखों का मिचना ), रोमहर्ष ( रोगटों का खड़ा होना ), कफ का नाश तथा शरीरशैथिल्य ( शरीर का ढीला होना) को करता है, एवं कण्ठ छाती तथा हृदय में दाह को करता है । खारा रस - मलशुद्धि को करता है, खराब व्रण ( गुमड़े ) को साफ करता है, खुराख को पचाता है, शरीर में शिथिलता करता है, गर्मी करता तथा अवयवों को कोमल (मुलायम) रखता है । इस के अति सेवन से यह खुजली, कोढ़, शोध तथा थरको करता है, चमड़ी के रंग को बिगाड़ता है, पुरुषार्थ का नाश करता है, आंख आदि इन्द्रियों के व्यवहार को मन्द करता है, मुखपाक ( मुँह का पकजाना) को करता है, नेत्रव्यथा, रक्तपित्त, वातरक्त तथा खट्टी डकार आदि दुष्ट रोगों को उत्पन्न करता है । तीखा रस- अग्निदीपन, पाचन तथा मूत्र और मल का शोधक ( शुद्ध करनेवाला) है, शरीर की स्थूलता ( मोटापन ), आलस्य, कफ, कृमि, विषजन्य ( जहर से पैदा होनेवाले ) रोग, कोड़ तथा खुजली आदि रोगों को नष्ट करता है, सांधों को ढीला करता है, उत्साह को कम करता है तथा स्तन का दूध, वीर्य और मेद इन का नाशक है । इस के अति सेवन से यह - भ्रम, मद, कण्ठशोप ( गले का सूखना ), ताशोष ( तालुका सूखना ), ओष्ठशोष ( ओठों का सूखना ), शगर में गर्मी, बलक्षय, कम्प और पीड़ा आदि रोगों को उत्पन्न करता है तथा हाथ पैर और पीठ में वादी को करके शूल को उत्पन्न करता है । कडुआ रस- खुजली, खाज, पित्त, तृषा, मूर्च्छा तथा ज्वर आदि रोगों को शान्त करता है, स्तन के दूधको ठीक रखता है तथा मल, मूत्र, मेंद, चरबी और aणविकार (पीप ) आदि को सुखाता है । इस के अति सेवन से यह गर्दन की नसों का जकड़ना, नाडियों का विंचना, शरीर में व्यथा का होना, भ्रम का होना, शरीर का टूटना, कम्पन का होना तथा भूख में रुचि का कम आदि विकारों को करता है । कपैला रस-दस्त को रोकता है, शरीर के गात्रों को दृढ़ करता है, व्रण तथा प्रमेह आदि का शोधन (शुद्ध) करता है, व्रण आदि में प्रवेश कर उसके दोष को निकालता है तथा केद अर्थात् गाढ़े पदार्थ पके हुए पीपका शोषण करता है । इस के अति सेवन से यह हृदयपीड़ा, मुखशोष ( मुखका सूखना ), आध्मान ( अफरा ), नसों का जकड़ना, शरीर स्फुरण ( शरीर का फड़कना ), कम्पन तथा शरीरका संकोच आदि विकारों को करता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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