SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ नैनसम्प्रदायशिक्षा । १ - इस भारतवर्ष में अनेक प्रकार के अन्न फल फूल और वनस्पति की अयन्त ही बहुतायत है, अत एव उपज के लिये इस भूमि के समान कोई भी दूसरी भूमि नहीं है, इस लिये यहां के निवासियों को हिंसा से सिद्ध होनेवाले मांस आदि अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाने चाहिये, जब कि उन के लिये स्वतः सिन्द्व, शुद्ध, पुष्टिकारक, सुस्वादु और परम उपयोगी वनस्पति की खुराक मिल सकती है। २- मनुष्य जाति का शरीर स्वभाव से ही मांसाहार के योग्य नही है, इसविषय का निर्णय जैन, वैद्यक और आयुर्ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थों में अच्छे प्रकार से कर दिया गया है, यद्यपि डाक्टर लोगों में परस्पर इस विषय में बहुत ही विवाद है अर्थात् कोई लोग मांसाहार को और कोई लोग वनस्पति के आहार को उत्तम बतलाते हैं तथापि दीर्घ दृष्टि से देखने पर और एतद्देश के मनुष्योंके अभ्यास, प्रकृति और जल वायु आदि का विचार करने पर यही निश्चय होता है कि इस आर्यावर्त्त के लोगों की होजरी ( अभ्याशय) मांस को बिलकुल नहीं पचा सकती है और इस बात का अनुभव आदि के द्वारा भी खूब निश्चय हो चुका है। ३- जन्म से अभ्यास पड़ जाने के कारण इस देश के निवासी भी मांसाहारी लोग मांसाहार करते हैं और काबुल से आगे शीतकटिबंध के बहुत से लोग मांसाहार यथारुचि करते हैं यह उन के हमेशा के अभ्यास और शोर के भीतर की गर्मी के कारण ऐसी दयारहित खुराक को चाहे भले ही उनकी होजरी धारण करती होगी परन्तु हमारे देश का थोड़ा सा भाग उष्ण कटिबंध में है बाकी का सब भाग समशीतोष्ण कटिबंध में है, इस लिये उक्त भाग के निवासियों की होजरी बिलकुल ही मांस के पचाने को योग्य नहीं है, हां अभ्यास डाल कर उस का हजम कर जाना दूसरी बात है, यों तो अभ्यास से लोग सोमल ( संखिया) और अफीम की भी मात्रा को धीरे २ बढ़ा लेते हैं परन्तु आखिर को उन की दशा भी बिगड़ती है और इस का अनुभव सब को प्रत्यक्ष ही है । ४- मांसाहारी लोगों का भी वनस्पति के आहार के विना निर्वाह नहीं हो सकता है और वनस्पति का आहार करनेवालों के लिये मांसाहार के विना कोई भी अड़चल नहीं आ सकती है, यह प्रमाण भी वनस्पति के आहार की ही पुष्टि करता है । अस्य १ - जैसा कि नीतिशास्त्र में लिखा है कि “ स्वच्छन्दवनजातेन शाकेनापि प्रपूर्यते दग्धोदरस्यार्थे कः कुर्यात् पातकं महत् ॥ १ ॥" अर्थात् खुद बखुद वन में पैदा हुए शादि से भी यह (पेट) भरा जा सकता है, फिर इस पापी पेट के लिये कौन मनुष्य बड़ा पाप (हिंसारूप ) करे ॥ १ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy