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________________ चतुर्थ अध्याय । १६७ अरिक्षजल - अन्तरिक्षजल उस को कहते हैं कि जो आकाश में स्थित बरसात का पानी अधर में ही छान कर लिया जावे ॥ भूतिजल - वही वरसात का पानी पृथिवी पर गिरने के पीछे नदी कुआ और तालाब में ठहरता है, उसे भूमिजल कहते हैं ॥ इन दोनों जलों में अन्तरिक्षजल उत्तम होता है, किन्तु अन्तरिक्षजल में भी जो जल आश्विन मास में वरसता है उस को विशेष उत्तम समझना चाहिये, यद्यपि आकाश में भी बहुत से मलिन पदार्थ वायु के द्वारा घूमा करते हैं तथा उन के संयोग से आकाश के पानी में भी कुछ न कुछ विकार हो जाता है तथापि पृथिवी पर पड़े हुए पानी की अपेक्षा तो आकाश का पानी कई दर्जे अच्छा ही होता है, तथा अधिन (असोज) नास में बरसा हुआ अन्तरिक्षजल पहिली बरसान के द्वारा व से रिक्ष से विशेष उत्तम गिना जाता है, परन्तु इस विषय में लेना आवश्यक है कि ऋतु के विना बरसा हुआ महावट आदि का पानी यपि अन्तरिक्ष जल है तथापि वह अनेक विकारों से युक्त होने से काम का नहीं होता है । श्री ही आवाश से जो ओले गिरते हैं उनका पानी अमृत के समान मीठा तथा बहुत होता है, इस के सिवाय यदि बरसात की धारा में गिरता हुआ पानी मोटे का की झोली बांधकर छान लिया जावे अथवा स्वच्छ की हुई पृथिवी पर गिर जान के बाद उस को स्वच्छ वर्तन में भर लिया जावे तो वह भी अन्तरिक्षजल कहलाता है तथा वह भी उपयोग में लाने के योग्य होता है । पहले कह चुके है कि बरसात होकर आकाश से पृथिवी पर गिरने के बाद पृथिवी सम्बन्धी पानी को भूमि जल कहते हैं, इस भूमि जलके दो भेद हैंजाङ्गल और आनूप, इन दोनों का विवरण इस प्रकार -- जाल जल - जो देश थोड़े जलवाला, घोड़े वृक्षोंवाला तथा पीत और केविका के उपड़ों से युक्त हो, वह जांगल देश कहलाता है तथा उस देश की भूमि के सम्बन्ध में स्थित जल को जांगल जल कहते हैं ॥ आप जल - जो देश बहुत जलवाला, बहुत वृक्षोंवाला तथा वायु और कफ १- इस लिये उपासकदशासूत्र में यह लिखा है कि- आनन्द श्रावक ने आसोज का अन्तरिक्ष जल जन्मभर पीने के लिये रखखा ॥ २ - आश्लेषा नक्षत्र का जल बहुत हानिकारक होता है, खो ! नालक का वचन है कि “दो घर वधावणा आश्लेषा छुटाँ” इत्यादि, अर्थात् आश्लेषा नक्षत्र में बरसे हुए जल का पीना मानों वैद्य के घर की वृद्धि करना है (वैद्य को घर में बुलाना है ) || ३ - परन्तु उस को बँधा हुआ ( ओलेरूप में ) खाना तथा बँधी हुई ( जमी हुई ) बर्फको खना जैनसूत्रों में निषिद्ध ( माना ) लिखा है, अर्थात् अभक्ष्य ठहराया है, तथा जिन २ वस्तुओं का सूत्रकारों ने अभक्ष्य लिखा है वे सब रोगकारी हैं, इस में सन्देह नहीं है, हां वेशक इन का गला हुआ जल कई रोगों में हितकारी है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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