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________________ १४८ जैनसम्प्रदायशिक्षा। पाठशालाओं के द्वारा हो रहा है तथा दूसरा ओषधिदान है जो कि-अस्पताल और शिफाखानोंके द्वारा किया जा रहा है। पहिले कह चुके हैं कि शरीर संरक्षण के नियम बहुधा दो भागोंमें विभक्त हैं अर्थात् रोग को अपने समीप में न आने देना तथा आये हुए रोगको हटा देना, इन दोनों में से वर्तमान समय में यदि चारों तरफ दृष्टि फैला कर देखा जावे तो लोगों का विशेष समुदाय ऐसा देखा जाता है कि-जिस का ध्यान पिछले भागमें ही है किन्तु पूर्व भाग की तरफ बिलकुल ध्यान नहीं हैं अर्थात् रोग के आने के पीछे उस की निवृत्ति के लिये इधर उधर दौड़धूप करना आदि उपाय करते हैं, परन्तु किस प्रकार का वर्ताव करने से रोग समीप में नहीं आ सकता है अर्थात् आरोग्यता बनी रह सकती है, इस बात को जनसमूह नहीं सोचताहै और इस तरफ यदि लोगों की दृष्टि है भी तो बहुत ही थोड़े लोगों की है और वे प्रायः आरोग्यता बनी रहने के नियमों को भी नहीं समझते हैं, बस यही अज्ञानता अनेक व्याधिजन्य दुःखों की जड़ है, इसी अज्ञानता के कारण मनुष्य प्रायः अपने और दूसरे सबों के शरीर की खराबी किया करते हैं, ऐसे मनुष्यों को पशुओं से भी गया वीता समझना चाहिये, इस लिये प्रत्येक मनुष्य का यह सब से प्रथम कर्तव्य है कि-वह अपनी आरोग्यता के समस्त साधनों (जितने कि मनुष्य के आधीन हैं) के पालन का यन अवश्य करे अर्थात् आनेवाले रोग के मार्ग को प्रथम से ही बन्द कर दे, देखो ! यह निश्चय की हुई १-आरोग्यता के सब नियम मनुष्य के आधीन नहीं हैं, क्योंकि बहुत से नियम तो दैाधीन अर्थात् कर्मस्वभाव वश हैं, बहुत से राज्याधीन हैं, बहुत से लोकसमुदायाधीन हैं और बहुत से नियम प्रत्येक मनुष्य के आधीन हैं, जैसे-देखो। एकदम ऋतुओं के परिवर्तन का होना, हैजा, मरी, विस्फोटक, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अति शीत और अति उष्णता का होना आदि दैवाधीन (समुदायां कमें के आधीन) काया में मनुष्य का कुछ भी उपाय नहीं चल सकता है, नगर की यथायोग्य स्वच्छता आदि के न होने से दुर्गन्धि आदि के द्वारा रोगोत्पत्ति का होना आदि कई एक कार्य राज्याधीन हैं, लोकप्रथा के अनुसार बालविवाह (कम अवस्था में विवाह , और जीमणवार आदि कुचालों से रोगोत्पत्ति होना आदि कार्य जाति वा समाज के आधीन हैं, क्योंकि इन कार्यों में भी एक मनुष्य का कुछ भी उपाय नहीं चल सकता है और प्रत्येक मनुष्य खान पान आदि की अज्ञानता से स्वयं अपने शरीर में रोग उत्पन्न कर लेवे अथवा योग्य वर्ताव कर रोगोंसे वचा रहे यह बात प्रत्येक मनुष्यके आधीन है, हां यह बात अवश्य है कि-यदि प्रत्येक मनुष्य को आरोग्यता के नियमों का यथोचित ज्ञान हो तब तो सामाजिक तथा जातीय सुधार भी हो सकता है तथा सामाजिक सुधार होने से नगर की स्वच्छता होना आदि कार्यों में भी सुधार हो सकता है, इस प्रकार से प्रत्येक मनुष्य के आधीन जो कार्य नहीं हैं अर्थात् राज्याधीन वा जात्याधीन हैं उनकाभी अधिकांशमं सुधार हो सकता है, हां केवल दैवाधीन अंशमें मनुष्य कुछ भी उपाय नहीं कर सकता है, क्योंकि-निकाचित कर्न वन्धन अति प्रवल है, इस का उदाहरण प्रत्यक्ष ही देख लो कि-ग राक्षसी कितना कष्ट पहुँचा रही है और उसकी निवृत्ति के लिये किये हुए सब प्रयल व्यर्थ जा रहे हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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