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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा। मारकर स्थिर हो जाता है, इस लिये गर्भवती स्त्री को उपवास नहीं करना चाहिये, खुराकमें अनियमितपन भी नहीं करना चाहिये, दोहद होने पर भी मन को काबू में रखना चाहिये जो पदार्थ हानिकारक न हो वही खाना चाहिये किन्तु जो अपने मनमें आवे वही खा लेने से हानि होती है, गर्भिणी को सदा हलकी खुराक लेनी चाहिये किन्तु जिस स्त्री का शरीर जोरावर और पुष्कल (पूरा, काफी) रुधिर से युक्त हो उस को तो यथाशक्य कांजी, दूध, घी और वनस्पति आदि के हलके आहार पर ही रहना चाहिये, गर्म खुराक, खट्टा पदार्थ, कच्चा मेवा, अति खारा, अति तीखा, रूखा, ठंढा, अति कडुआ, बिगड़ा हुआ अर्थात् अधकच्चा अथवा जला हुआ, दुर्गन्धयुक्त, वातल (वादी करनेवाला) पदार्थ, फफूंदीवाला, सड़ा हुआ, सुपारी, मिट्टी, धूल, राख और कोयला आदि पदार्थ बहुत विकार करते हैं इस लिये यदि इन के खाने को मन चले तथापि मन को समझा कर (रोक कर) इन को नहीं खाना चाहिये, गर्भवती को तीक्ष्ण (तेज) जुलाब भी नहीं लेना चाहिये, यदि कभी कुछ दर्द हो जाये तो किसी अज्ञ (अजान, मूर्ख) वैद्य की दवा नहीं लेनी चाहिये किन्तु किसी चतुर वैद्य वा डाक्टर की सलाह लेकर दर्द मिटने का उपाय करना चाहिये किन्तु दर्द को बढ़ने नहीं देना चाहिये। गर्भवती को चाहिये कि-सर्दी और गीलेपन से शरीर को बचावे, जागरण न करे, जल्दी सोवे और सूर्योदयसे पहिले उटे, मनको दुःखित करनेवाले चिन्ता और उदासी आदि कारणों को दूर रक्खे, भयंकर स्वांग तथा चित्र आदि न देखे, अन्य गर्भिणी स्त्री के प्रसवसमय में उस के पास न जावे, अपनी प्रकृति को शान्त रक्खे, जो बातें नापसन्द हों उन को न करे, अच्छी २ बातों से मन को खुश रक्खे, धर्म और नीति की बातें सुन के मन को दृढ़ करे, यदि मन में साहस और उत्साह न हो तो उसमें साहस और उत्साह लावे (उत्पन्न करे), जिन बातों के सुनने से कलह अथवा भय उत्पन्न हो ऐसी बातें न सुने, नियमानुसार रहे, अलंकार का धारण करे, सावधानता से पति के प्रिय कार्यों में प्रेम रक्खे, अपने धर्म में प्रीति रक्खे, पवित्रता से रहे, मधुरता के साथ धीमे स्वर से बोले, परमेश्वर की भक्ति में चित्त रक्खे, मनोवृत्ति को धर्म तथा नीतिकी ओर लाने के लिये अच्छे २ पुस्तक बांचे, पुष्पों की माला पहरे, सुगन्धित तथा चन्दन आदि पदार्थोंका लेप करे, स्वच्छ घर में रहे, परोपकार और दान करे, सब जीवों पर दया रक्खे, सासु श्वशुर तथा गुरुजन आदि की मर्यादा को स्थिर रक्खे तथा उन की सेवा करे, कपाल (मस्तक) में कुंकुम (रोरी या सेंदूर) का टीका (बिन्दु) तथा आंखों में काजल आदि सौभाग्यदर्शक चिह्नों को धारण करे, कोमल और स्वच्छ वस्त्रसे आच्छादित विस्तरपर सोवे तथा बैटे, अच्छी तथा गुणवाली वस्तुओं पर अपना भाव रक्खे, धार्मिक, नीतिमान् , पराक्रमी और बलिष्ट आदि उत्तम गुणवान् स्त्री पुरुषों के चरित्र का मनन करे तथा ऐसा ही उत्तम गुणों से सम्पन्न और रूपवान् मेरे भी सन्तान हो ऐसी मन में भावना रक्खे, उत्तम चरित्रों से प्रसिद्ध स्त्री पुरुषों के, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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