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________________ ११४ जैनसम्प्रदायशिक्षा । दूध आदि उत्तम पदार्थ इन मासों में भी अवश्य खाने चाहिये, क्योंकि इस प्रकार के पौष्टिक आहारसे गर्भ की उत्तम रीति से वृद्धि होती है, इस प्रकार से वृद्धि पाकर तथा सब अंगोंसे युक्त होकर गर्भस्थ सन्तान पूर्व कृत कर्मानुकूल उदर में रहकर गर्भसे बाहर आता है अर्थात् उत्पन्न होता है । योग्य विपरीत पदार्थ । गर्भ समय में त्याग करने जो पदार्थ त्याग करने के योग्य तथा विपरीत हैं उनका सेवन करने से गर्भ उदर में ही नष्ट हो जाता है अथवा बहुत दिनों में उत्पन्न होता है, ऐसा होने से कभी २ गर्भिणी स्त्री के जीव की भी हानि हो जाती है, इसलिये गर्भिणी को हानि करनेवाले पदार्थ नहीं खाने चाहियें किन्तु जिन पदार्थों का ऊपर वर्णन कर चुके हैं उन्हीं पदार्थों को खाना चाहिये, तथा गर्भवती स्त्री के विषय में जो बातें पहिले लिख चुके हैं उन का उस को पूरा ध्यान रखना चाहिये, क्यों कि उन का पूरा २ ध्यान न रखने से न केवल गर्भ को किन्तु गर्भिणी को भी बहुत हानि पहुँचती है, यद्यपि संक्षेप से इस विषय में कुछ ऊपर लिखा जा चुका है तथापि ऊपर लिखी बातों के सिवाय गर्भवती को और भी बहुत सी आवश्यक बातों की सम्भाल पहिले ही से ( गर्भ की प्रारंभिक दशा से ही ) रखनी चाहिये, इस लिये यहां पर गर्भवती के लिये कुछ आवश्यक बातों की शिक्षा लिखते हैं: गर्भवती स्त्री के लिये आवश्यक शिक्षायें । दर्द पैदा करनेवाले कारण विना गर्भ दशा में जितना असर करते हैं उस की अपेक्षा गर्भ रहने के पीछे वे कारण गर्भवती स्त्री पर दश गुणा असर करते हैं, न केवल इतना ही किन्तु वे कारण गर्भवती स्त्री पर शीघ्र भी असर करते हैं, इस लिये गर्भवती स्त्री को अपनी तनदुरुस्ती कायम रखने में विशेष ध्यान रखना चाहिये, गर्भिणी को सुन्दर स्वच्छ हवा की बहुत ही आवश्यकता है इस लिये जिस प्रकार स्वच्छ हवा मिल सके ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये, अति संकीर्ण स्थान में न रह कर उस को स्वच्छ हवादार स्थान में रहना चाहिये, नित्य खुली हवा में थोड़ा २ फिरने का अभ्यास रखना चाहिये क्यों कि ऐसा करने से अंगों में भारीपन नहीं आता है किन्तु शरीर हलका रहता है और प्रसव समय में बालक भी सुख से पैदा हो जाता है, उस को घर में थोड़ा २ काम काज भी करना चाहिये किन्तु दिन भर आलस्य में ही नहीं विताना चाहिये क्योंकि आलस्य में पड़े रहने से प्रसव समय में बहुत वेदना होती है, परन्तु शक्ति से अधिक परिश्रम भी नहीं करना चाहिये क्योंकि इस से भी हानि होती है, बहुत देर तक शरीर को बांका (टेढ़ा वा तिरछा ) कर हो सकने वाले काम को नहीं करना चाहिये, शरीर को बांका कर भारी वस्तु नहीं उठानी चाहिये, जिस से पेट पर दबाव पड़े ऐसा कोई काम नहीं करना १- अर्थात् पूर्व किये हुए कर्मों का फल जबतक उदर में भोग्य है तबतक उस फल को उदर में भोग कर पीछे बाहर आता है (उदर में रहना भी तो कर्म के फलों का ही भोग है ) | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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