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________________ तृतीय अध्याय । १११ सम्भोग करने के पीछे गर्भ में लड़के वा लड़की ( जो उत्पन्न होने को हो ) का जीव शीघ्र ही आ जाता है, परन्तु इस विषय में जो लोग ऐसा मानते हैं कि गर्भस्थिति के एक महीने वा दो महीने के पीछे जीव आता है वह उन का भ्रममात्र है किन्तु जीव तो चौवीस घड़ी के भीतर २ ही आ जाता है तथा जीव गर्भमें आते ही पिता के वीर्य और माता के रुधिर का आहार लेकर अपने सूक्ष्म शरीर को (जिसे पूर्व भव से साथ लाया है तथा जिस के साथ में अनेक प्रकार की कर्म प्रकृति भी हैं ) गर्भाशय में डाल कर उसी के द्वारा स्थूल शरीर की रचना का प्रारंभ करता है, क्योंकि जब जीव एक गति को छोड़कर दूसरी गति में आता है तब तैजस तथा कार्मणरूप सूक्ष्म शरीर उस के साथही में रहता है तथा पुण्य और पाप आदि कर्म भी उसी सूक्ष्म शरीर के साथ में लगे रहते हैं, बस, इसी प्रकार जबतक वह जीव संसार में भ्रमण करता है तबतक उस के उक्त सूक्ष्म शरीर का अभाव नहीं होता है किन्तु जब वह मुक्त होकर शरीर रहित होता है तथा उस को जन्ममरण और शरीर आदि नहीं करने पड़ते हैं तथा जिस के राग द्वेष और मोह आदि उपाधियां कम होती जाती हैं, उस के पूर्व सञ्चित कर्म शीघ्र ही छूट जाते हैं, परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि संसारके सब पदार्थों का और आत्मतत्त्व का यथार्थ ज्ञान होनेसेही राग द्वेष और मोह आदि उपाधियां कम होती हैं, तथा यदि किसी वस्तु ममता न रख कर सद्भाव से तप किया जावे तो भी सब प्रकार के कर्मों की उपाधियां छूट जाती हैं तथा जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है, जबतक यह जीव कर्मकी उपाधियों से लिप्त है तबतक संसारी अर्थात् दुनियांदार हैं किन्तु कर्मकी उपाधियों से रहित होने पर तो वह जीव मुक्त कहलाता है, यह जीव शरीर के संयोग और वियोग की अपेक्षा अनित्य है तथा आत्मधर्म की अपेक्षा नित्य है, जैसे दीपकका प्रकाश छोटे मकान में संकोच के साथ तथा बड़े मकान में विस्तार के साथ फैलता है उसी प्रकारसे यह आत्मा पूर्वकृत कर्मों के अनुसार छोटे बड़े शरीर में प्रकाशमान होता है, जब यह एक जन्म के आयु:कर्म की पूर्णता होने पर दूसरे जन्म के आयुका उपार्जन कर पूर्व शरीर को छोड़ता है तब लोग कहते हैं कि अमुक पुरुष मर गया, परन्तु जीव तो वास्तव में मरता नहीं है अर्थात् १- जैसा कि वैद्यक आदि ग्रन्थोंमें लिखा है कि शुक्रार्तवसमाक्षेषो यदैव खलु जायते ॥ जीवस्तदैव विशति युक्तशुक्रार्तवान्तरम् ॥ १ ॥ सूर्यांशोः सूर्यमणित उभयस्माद्यतायथा ॥ वह्निः सञ्जायते जीवस्तथा शुक्रार्तवाद्युतात् || २ || अर्थात् जब वीर्य और आर्तव का संयोग होता है - उसी समय जीव उन के साथ उस में प्रवेश करता हैं ॥ १ ॥ जैसे-सूर्य की किरण और सूर्यमणि के संयोग से अग्नि प्रकट होती है उसी प्रकार से शुक्र और शोणित के सम्बन्ध से जीव शीघ्रही उदर में प्रकट हो जाता है || २ || २- जैसा कि भगवद्गीता में भी लिखा है कि-नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ॥ न चैन वेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ अर्थात् इस जीवात्मा को न तो शस्त्र काट सकते है, न अग्नि जला सकता है, न जल भिगो सकता है और न वायु इस का शोषण कर सकता है - तात्पर्य यह है कि-जीवात्मा नित्य और अविनाशी है ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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