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________________ ९२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। आदि के बहाने पुरुषों की भीड़ में धक्के न खाकर घर में बैठकर ईश्वरभक्ति भाव पूजा ( सामायिक आदि) को प्रीति से करती है, यदि दैवइच्छा से पति रोगी खोटा तथा दुर्गुणी भी मिलता है तो भी उसी को अपने देव के तुल्य प्रिय जान कर सदा प्रसन्न रहती है, पति के सिवाय दूसरे किसी की भी गरज नहीं रखती है, यदि कोई द्रव्य आदि का लोभ भी दिखलावे तो भी अपने मन को चलायमान नहीं होने देती है, यदि कोई कामी पुरुष दुष्ट वांछः (इच्छा) से नम्रता के साथ अथवा बल कर के धारण करे, अथवा वस्त्र और आभूषण आदि का लोभ देवे तो चाहे वह देव और गन्धर्व के समान रूपवान युवा तथा द्रव्यवान् भी क्यों न हो तथापि लालच न करके उस को धिक्कार करके दूर कर देती है, पति के सिवाय दूसरेको जरा भी नहीं भजती है, पर पुरुष के साथ अपने शरीर का संघट्ट हो जावे ऐसा नहीं वर्तती है, जिस से मर्याद का भंग हो ऐसा एक वस्त्र पहर कर नहीं फिरती है किन्तु जिस से पैरों के पीड़ी और पेट आदि शरीर के सब भाग अच्छे प्रकार से ढके रहें ऐसा वरू पहरती है, वस्त्र उतार कर अर्थात् नग्न (नंगी) होकर कभी स्नान नहीं करती है, धीमी चलती है, अपने मुख को सदा हर्ष में रखती है, ऊंचे स्वर से हास्य नहीं करती है, अन्य स्त्री अथवा अन्य पुरुप की चेष्टा को नहीं देखती है. सौभाग्यदर्शक साधारण शृंगार रखती है, उत्तम वस्त्र और अलंकार आदि से शरीर को शोभित करने के बदले सद्गुणों से शोभित करने की इच्छा सद रखती है, देह को क्षणभंगुर (क्षण भर में नाश होने वाला) जान कर तथ परलोक के सुख का विचार कर सुकृत (उत्तम काम-दान पुण्य आदि ) कर के सत्कीर्ति का सम्पादन करती है, सदा शील का रक्षण करती है, सत्य बोलती है, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य और तृष्णा आदि विकारों को शत्रु के समान समझ कर उन का त्याग करती है, सन्तोष, समता, एकता और क्षमा आदि सद्गुणों को मित्र के समान समझ कर उन का स्नेह से संग्रह करती है, पति के द्वारा जो कुछ मिले उसी में निरन्तर सन्तोष रखती है, विद्यः विनय और विवेक आदि सद्गुणों का सदा सम्पादन करती है, उदार, चतुर और परोपकारी बनने में प्रीति रखती है, धर्म, नीति, सद्व्यवहार और कला कौशल्य का शिक्षण स्वयं (खुद) प्राप्त कर अपने सम्बन्धी आदि जनों को सिखाने में तथा श्रेष्ठ उपदेश देकर उन को सन्मार्ग में लाने का यत्न करती है, किसी को दुःख प्राप्त हो ऐसा कोई भी कार्य नहीं करती है, अपने कुटुम्ब अथवा दूसरों के साथ विरोध डाल कर क्लेश नहीं करती है, हर्ष शोक और सुख दुःख में समान रहती है, पति की आज्ञा लेकर सौभाग्यवर्धक व्रत नियम आदि धर्मकार्य करती है, अपने धर्म पर स्नेह रखती है, जेठ को श्वसुर के समान जिठानी को १-क्योंकि ऊंचे स्वर से हंसना दुष्ट स्त्रियों का लक्षण है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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