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________________ सारांश:-विद्वान पुरुष किसी भी स्थान पर एकदम साहस नहीं करते । कोई बात कहीं पर सुनी या पढ़ी, तो वहां पर तत्वकी तुलना करते हैं। और तत्वको ग्रहण करके इस प्रकार आचरण करते हैं कि जिससे अपने और दूसरों के अर्थ में विरोध पैदा न हो। __ ऊपर लिखे हुए लेखसे यह बात सिद्ध हो चुकी कि जिन्होंने गुरुमुख से शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है, वे शास्त्रीय शब्दों का अर्थ करने के लिये अधिकारी नहीं है । गुरुमुख से शिक्षण लिया भी हो, परंतु गुरुसंप्रदाय शुद्ध न हो, अथवा पढ़ने वाले में विवेक हो न हो तो भी वह सर्वथा अनधिकारी ही होता है। अब यहांपर विशेष चेतावनी अपनी समाज के व्यक्तियों को दी जाती है कि जैनागम, रहस्यसे शून्य किसी भी अजैन या जैन व्यक्ति ने किसो किस्म का झूठा आक्षेप उठा दिया हो तो उस पर अपन भडक कर उसका निराकरण करने के लिये चारों तरफ से एक आवाज उठा देते हैं यह बात विशेष अंश में ठीक नहीं है, क्योंकि आक्षेप उठाने वाले तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं (१) "अज्ञानी" जिसने गुरु परम्परा से आगमों का अर्थ संपादन नहीं किया है, उसका निराकरण इतने हो शब्दों में हो सकता है कि जैनागमों का ज्ञान तुमने कहां से संपादन किया है ? अगर किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त नहीं किया तो तुम इस आवाज को उठाने के लिये अयोग्य हो । पहले जैनागम रहस्य को संपादन करो। " (२) दूसरे व्यक्ति वे हैं जिन्होंने ज्ञान प्राप्त कर लिया है, परंतु उनका ज्ञान अधूरा है, एक भी शास्त्र का आद्योपान्त अभ्यास नहीं हुआ है उसमें भी हठाग्रह है, उनके साथ भी वाद विवाद करना-उनके आक्षेपों का उत्तर देना निरर्थक ही है । कहा भी है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034518
Book TitleJain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kaushambi
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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