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________________ विधान भगवान् ने किस तरह किया ? और स्वतः भगवान् ने भी इस अभक्ष्य पदार्थ का सेवन किस प्रकार किया होगा? ' अतः "व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिर्नहि सन्देहादलक्षणम" इस परिभाषा के अनुसार शास्त्र के अर्थ में जहां पर संशय उत्पन्न हो, वहां शिष्ट पुरुषों के द्वारा की हुई व्याख्या से विशेष अर्थ का निश्चय करना चाहिये । शास्त्र में संशय उत्पन्न होने पर वह अलक्षण अर्थात् अमान्य नहीं होता है। और भी इस बाबत में महर्षि मनुजी कहते हैं कि “आर्ष संदर्ध त न तु विघ ये "अर्थात् महर्षियों के वाक्यों को जोड़ना चाहिये, किन्तु तोड़ना नहीं । इसी तरह उपनिषद् और म्मतियों को वेदान्त से विरुद्ध जाती हुई बहुतसी बाह्य विसंगतियां देखकर श्रोशकराचार्य सरीखे प्रखरतार्किक नैयायिक ने स्वकीय ब्रह्मसूत्र शंकर भाष्य में लिखा है कि ."तस्मात्तदविरोधेन वेदान्ता व्याख्यातव्या' अर्थात् श्रुति स्मृतियों का विरोध न हो, इस प्रकार वेदान्त को व्याख्या करनी चाहिये । इसी न्याय का अनुसरण अपने को भी करना चाहिये । धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों से बाह्यदृष्टि से विरुद्ध जाने वाली विचार-सरणीका पाठकों तथा विचारकों को इस रीति से विचार करना और घटाना चाहिये कि वह विचार-सरणी मूलभूत सिद्धांतो की घातिका नहीं होती हुई पोषिका बने और सहारा दे। सारांश यह है कि आगमों में एकाध स्थलपर बाह्यदृष्टि से जो धर्म आचार व्यवहार और प्ररूपणा से विरुद्ध अर्थ भासित हो रहे हैं, उनके लिये सुसंगत अर्थ की अन्वेषणा करनी चाहिये । परन्तु ये विचार पैदा कैसे हो? अनुभवी प्राचीन नीतिज्ञ पुरुषों ने तो पहले ही लिख दिया है कि. देवीं वाचमुपासते हि बहवः सारं तु सारस्वतम् , .. जानीते निलरामसौ गुरुकुलक्लिष्टो जनः सज्जनः ।। . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034518
Book TitleJain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kaushambi
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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