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________________ ( ३८ ) जीवों के घात से पहले के चार और ५ वां रसेन्द्रिय और ६ ठा वचन इन छहों बल प्राणों से जीव अलग होता है । त्रीन्द्रिय जीवों के घात से छः पहले के और ७ वां घ्राणेन्द्रिय ऐसे सात बल प्राणों से जीव का वियोग होता है । चतुरिन्द्रिय के घात से पहले के ७ और आठवां चतुरिन्द्रिय ऐसे ८ बल प्राणां से जोव का वियोग होता है । और पंचेन्द्रिय के विघात से ८ पहले के और ६ वां श्रोत्रेन्द्रिय तथा १० वां मन ऐसे समुच्चय १० प्राणों से जीव का वियोग होता है । अतः जिन जीवों में न्यून वा अधिक प्राण पाये जाते हैं, उनके घात से उतने ही न्यून अथवा अधिक परिमाण में हिंसा का पाप लगता है । ऐसा जैन धर्म का मंतव्य है । और नीतिज्ञों का महर्षियों का ऐसा उपदेश है कि शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराज्जायते धर्मो यथा बीजात्सदं कुरः || अर्थात् जिस तरह लखपति करोड़ पति के सामने एक पैसे वाला धनी धनवान नहीं कहलाता उसी तरह पंचेन्द्रिय संज्ञी जीवों के सामने चतुरिन्द्रिय जीव संज्ञी नहीं कहे जाते द्वीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जोवों के घात करने वाले हिंसकों की अपेक्षा उदासीनता पूर्वक शरीर संरक्षणार्थ एकेन्द्रिय का घात करने वाला (गृहस्थ ) अहिंसक है, उनके यहां से आहार लेने में कुछ हरकत नहीं है । सचित्त पृथ्वी; सचित्त पानी आदि का सेवन करने वाले और मांस का सेवन करने वाले यदि कोशांबीजी के मत से बराबरी में आ गये तो कोशांबीजी को गुन्हेगार समझना चाहिये । क्योंकि यह आँख से दुखी हुई बात है कि बौद्ध साधु अपनी इच्छा के अनुसार कच्चे पानो को अपने काम में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034518
Book TitleJain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kaushambi
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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