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________________ ( २५ ) ग्रहण के विषय में अपवाद वाक्य कैसे आ सकता है ? इसको सहृदय लोग विचार करें। निषेध वाक्य के लिये स्थाली पुलाक न्याय से२-३ उदाहरण यहां दे रहे हैं। जैसे-(१) श्री सूयगडांग सूत्र के अठारहवें क्रियानामक अध्ययन में धर्मपक्ष, अधर्मपक्ष और मिश्रपक्ष के ऊपर विशेष विवेचन किया है। धर्म पक्ष में साधु, अधर्म पक्ष में मिथ्यात्वी, और मिश्रपक्ष में श्रावक का वर्णन है। उसमें से धर्मपक्ष (साधु ) का विशद रीति से प्राचार बतलाते हुए एक विशेषण ऐसा आया है कि "अमज्ज मंसासिणो" अर्थात् मद्यपान और मांससेवन नहीं करने वाले साधु कहलाते हैं। जैन श्रमणों के लिये मद्यमांस सेवन के विषय में स्पष्ट रोति से निषेध भगवान कर रहे हैं, फिर मांस लेने के लिये और खाने के लिये आज्ञा कैसे हो सकती है ? (२) दूसरा प्रमाण लीजिये । श्री सूयगडांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के कुशील परिभाषा नामक सप्तम अध्ययन की तेरहवीं गाथा में प्रभु ने स्पष्ट फरमाया है कि-"ते मज्ज मंसं लसुणं च भोच्चा, अनत्थवासं परिकप्पयंति । अर्थात् जो मद्यमांस और लसुन खाकर मोक्ष की इच्छा करते हैं, वे अनर्थों का स्थान रूप इस संसार में ही परिभ्रमण करते है। सारांश, मद्यमांस का सेवन जन्म मरणरूप संसार को बढ़ाने वाला है, मोक्ष प्राप्ति कराने वाला नहीं है । __(३) तोसरा प्रमाण लीजिये । श्री स्थानांग सूत्र के चौथे ठाणे अर्थात् चौथे अध्ययन के चौथे उद्देशे में नरक गति के प्रभुने चार कारण बतलाए हैं । जैसे-“चरहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा-महारंभयाए, महापरिग्गयाए पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं" अर्थात् चार कारण से जीव नारकी के कर्म बांधते हैं (१) महा प्रारंभ से (२) महा परिग्रह से (३) पंचेन्द्रिय के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034518
Book TitleJain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kaushambi
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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