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________________ ( १३ ) शाल्मली अर्थात् जिनमें खाने का अंश थोड़ा और फैकने का अंश ज्यादा है, ऐसे पदार्थ देने-वाली को साधुजी प्रत्याख्यान (निषेध) कर दें कि ऐसी चीज मुझे नहीं कल्पती हैं। . जिस पुस्तक का प्रमाण ऊपर दिया है वह विक्रम संवत् १६६५ में लिखो गई है, जिसको आज ३३६ वर्ष होते है, अवचूरिकाकार का समय तो और भी पहले का होगा । आक्षेपकर्ता कोशाम्बीजी की अवस्था ज्यादा से ज्यादा ७०-८० वर्ष के करीब की होगी, फिर वर्तमान काल में जैन साधुओं का आचार और सूत्र की टीका इन दोनों का मिलान करके जैन संस्कृति को शाकाहारी ही सिद्ध करने की युक्ति उनको क्यों नहीं सूझी ? या “ कहीं की ईंट कहीं का रोडा, भानुमती ने कुनबा जोडा" इस न्याय का अवलम्बन करके प्रकरण विरुद्ध, टीका विरुद्ध, ओचार विरुद्ध प्ररूपणा विरुद्ध और व्यवहार विरुद्ध अर्थ का उल्लेख करके, अपने अपाण्डित्य का परिचय दिया। __ अब यहां पर स्वमत से विचार यह करना है कि “ बहु अट्टियं पोग्गलं अणिमिसं वा बहुकंटयं" इस गाथा के उत्तरार्द्ध में " अस्थिअंतिंदुओं विल्लं उच्छखंडं सिंबलिं ये सभी वनस्पतियों के नाम आये हैं । प्राचीन विद्वानों का यह प्रौढ सिद्धांत है कि सहचरितासहचरितयोर्मध्ये सहचरितस्यैव ग्रहणम् " अर्थात् सहचरित और असहचरित यानी साथ में रहने वाले और साथ में नहीं रहने वाले (प्रकरण संगत, प्रकरण विरुद्ध ) इन दोनों की उपस्थिति हो, वहाँ पर सहचरित अर्थात् प्रकरण संगत का ही ग्रहण कियो जाता है । जैसे “ राम-कृष्णौ " इस पदमें कृष्ण तो ( वासुदेव के अवतार ) एक ही है, उसमें शंका का कोई स्थान ही नहीं है, परन्तु राम तीन हुये हैं (१) परशुराम (२) दाशरथि राम अर्थात् मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र और तीसरे कृष्ण वासुदेव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034518
Book TitleJain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kaushambi
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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