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________________ ( ८ ) अर्थात कौओंकी कतार पर्वत के शिखर पर बैठी हो और हंसकी कतार नीचे तालाव के किनारे पर बैठो हो, तो भी कौवे हंस कहला सकते हैं क्या ? कदापि नहीं । इसी तरह मांसाहारियों के आक्षेपयुक्त वचन से निरामिष, सात्विक और प्रासुक आहार को ग्रहण करनेवाला जैन समाज मांस भोजी की कोटि में कदापि नहीं आ सकता। मांसाहारियों के आक्षेपों का उत्तर इसके पूर्व में श्वेतांबर जैन ममाज के बड़े बड़े धुरंधर विद्वानों ने कई बार दे दिया है, अब उसकी आवश्यकता कुछ भी नहीं थी, परंतु संघ यदि आग्रह कर रहा है तो संघका सम्मान रखना अपना कर्तव्य होता है, इस दृष्टि से गुरु परम्परा से जो कुछ ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ है, उसको संघ सेवा के लिये तथा अर्ध विदग्ध वादियों को सद्बोध कराने के लिये यहाँ उद्धृत कर देना अपना कर्तव्य समझता हूँ। शास्त्रार्थ समन्वय करने के पहले इस बातको निवेदित कर देना उचित है और पाठकों को भी इधर पूर्ण ध्यान रखना चाहिये वह बात यह है कि भगवान् वीर प्रभुके आगम अर्थागम हैं, अर्थात् प्रभु अपने उपदेशों को अर्द्धमागधी भाषा में फरमाते हैं, वह भाषा मनुष्य पशु-पक्षी देव आदि तत्तद् जीवोंकी भाषा में परिणत हो जाती है । सभी जीव अपनी २ भाषामें भगवान के उपदेश को ग्रहण करते हैं, इतनो ही विशेषता नहीं प्रत्युत अधिक चमत्कृति की बात यह है कि भगवान के शब्द तो एक ही निकलेंगे, परन्तु एक ही जाति के जीव अपने २ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षयोपशम के अनुसार भिन्न २ तरह से समझते हैं, अतएव श्री तत्वार्थ सूत्र के अन्दर "बहु बहुविध क्षिप्रानिश्रितासन्दिग्धध्रुवाणां सेतराणाम्” अर्थात् बहु बहुविध क्षिप्र अनिश्रित असंदिग्ध और ध्रव ये ६ और इनके प्रतिपक्षी अबहु, अबहुविध, अक्षिप्र, निश्रित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034518
Book TitleJain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kaushambi
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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