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________________ पार्वती-अनी वाह ! “परोपदेशे कुशला दृश्यते बहवो नराः" इस प्रकार आप मुझे तो कहते हैं कुत्सित शब्दों में लिखती है परन्तु फरमाइये अब आप क्या करते हैं ? विवेचक-अरे भोली ! जानती है ! फिर भी पूछती है! हम पुरुष हैं और वें स्त्री है, पुरुष को धर्मप्रधान कहा है. परन्तु स्त्री को नहीं, ले ही बता ? यदि कोई पुरुष आजकल मुंह को पाटी बांध कर तेरे पंथ में आमिले, तो उसको तूं वंदना करेगी या वह पुरुष तुझको वंदना करेगा ? बलात्कार से तुझको ही वंदना करनी पड़े। बम साबित होगया पुरुष धर्मप्रधान है, इसलिये हम तुझे एक वचन लिखने का अधिकार बराबर रखते हैं, यद्यपि तुच्छ शब्दों में लिखना इम चित नहीं समझते हैं और इसीवाने तेरे नाम को बढ़ाकर लिखते रहे हैं तथापि यहां प्रसंगवश से तुझको हितशिक्षा के निमित्त ऐसे लिखना पड़ा है, परन्तु तू हमको या किसी और महात्मा को एक वचन में लिखने का अधिकार कदापि नहीं रखती है, परंतु यह तेरे वश नहीं है, पात्र का ही प्रभाव है, नीतिशास्त्र का वचन है:यतः-पीत्वा कर्दमपानीयं, भेको बटबटायते। . दिव्यमानरसं पीत्वा, गर्व नायाति कोकिलः। १ तथा-अंगुष्ठोदकमात्रेण, शफरी फरफरायते । अगाधजलसंचारी, गर्व मायाति रोहितः १ अच्छा, तू जान, तेरी मरज़ी में आवे सो कर, हमको क्या तेरा किया तूंने ही भोगना है । "पपा पाप न कीजिये, न्यारे रहिये आप । जो करसी सों भोगती, क्या बेटा क्या बाप॥" तो भी जैसे महात्मा आत्मारामजी प्रायःजगजाहिर होगये है, तेरी शक्ति नहीं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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