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________________ है कि जैसे श्रीजनप्रतिमा की सेवा भक्ति करता हूं, उसी रीति अंतरंग प्रीति से आपकी सेवा करता हूं. तथा साक्षात् तीर्थंकर भगवान को नमस्कार करने के समय “सिद्धि गइ नाम धेयं ठाणं संपावित्रं कामस्म" अर्थात्-सिद्धिगति नामा स्थान को प्राप्त होने की चाहना वाले-ऐसा पाठ पढ़ा जाता है, और श्रीजिनप्रीतमा के आगे “सिद्धिगइ नाम धेयं ठाणं संपत्ताणं" अर्थात्-सिद्धिगति नामा स्थान को प्राप्त होचुके हैं, ऐमा पाठ पढ़ा जाता है, और यह बात श्रीरायपसेणी सूत्रादि जैनमूत्रों में प्रायः प्रतिस्थान आती है, तो भी उनकी बुद्धि इसके मानने मे शरमाती है तो फिर इसमें कोई क्या करे ? तथापे इतना तो जरूर ही कहते हैं कि निक्षेपों की बाबत सत्यार्थचन्द्रोदय नामा थोथी पोथी में जितने मनःकल्पित कुतर्क किये हैं, वह सर्व इन पूर्वोक्त बातों से निरर्थक होगये हैं और इसीवास्त हमने भी निक्षेपों के विषय में इतना विस्तार सहित लिखा है, क्योंकि पार्वती का असली अभिप्राय स्थापना को उड़ा कर श्रीजिनप्रतिमा के निषेध करने के सिवाय और कुछ भी नहीं है. इसलिये पार्वती के किये श्रीजिनप्रतिमा के निषेध को स्थापनासिद्ध द्वारा हमने खंडन कर दिया है, और इसके खंडन से पार्वती का सारा ही परिश्रम निष्फल होचुका। इसवास्ते अब अधिक लिखने की कोई जरूरत नहीं है, तो भी कितनीक जरूरी बातें कि जिनमें पार्वती की बिलकुल बेसमझी पाई जाती है उनका कुछ विवेचन करते हैं. बाकी " मूलं नास्ति कुतः शाखा" मूल नहीं है तो शाखा कहां से होवे इसके अनुसार जो जो लेख जैनशास्त्रों के या और किसी के आधार विना अंधपंगून्यायवत् कुछ का कुछ घसीट मारा है उन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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