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________________ (४८ ) कृस टूट जावेंगे, और इस दशा में अनुयोगद्वारादि सूत्र की आज्ञा के उल्लंघन रूप महावज्रदंडपहार की मार निर्विचार स्वीकार करनी पड़ेगी। इतना ही नहीं समझना कि चउवीसत्था ही उड़ जावेगा, साथ में पडिक्कमणा आवश्यक भी उड़ जावेगा, क्योंकि साधु साध्वी के पडिक्कमणे ( पगाम सिज्जाय ) में-"नमो चवीसाए तित्थयराणं उसभाइ महावीर पजवसाणाणं" ऐसा पाठ आता है. जिस का मतलब यह है कि ऋषभदेव आदि महावीर स्वामी पर्यंत चौबीस तीर्थकरों प्रति नमस्कार होवे. यद्यपि ऐसे २ प्रयक्ष पाठ हैं, तथापि असत्य कल्पना करके भोले जीवों को अपने जाल में फंसाते हैं तो इससे अधिक अनर्थ का काम और क्या होसकता है ? इसवास्ते जो तीर्थंकरों के नामादि उच्चारण करके स्तुति करनी है सो नामनिक्षेप ही है, भावनिक्षेप नहीं, क्योंकि जो २ नाम लिये जाते हैं उस २ नाम के तीर्थकर वर्तमान काल में भावनिक्षेपे कहीं भी विद्यमान नहीं हैं. जब भावनिक्षेपे नहीं हैं तो अनन्य गति होने से भावातिरिक्त निक्षेप उनको अवश्य मानना ही पड़ेगा, कभी भी छुटकारा नहीं होवेगा, और यदि यह बात दिनरात दिल को लात मारती होवे अर्थात् दिल में यह ख्याल होवे कि भूतकाल में जो चौबीस तीर्थकर थे, उनको वंदना करते हैं तो अतीतकाल में जो वस्तु होगई सो द्रव्यनिक्षेप है ॥ भूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारणंतु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्वज्ञैः,सचेतनाचेतनं कथितमितिवचनात । और द्रव्यानक्षेपको वंदनीय मानते नहीं हैं तो फिर बताओ दढियों की वंदना किसको होती है ? इसवास्ते यदि हठ को छोड़ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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