SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४७ ) वंदना होती है ऐमा उनका मानना है पार्वती जी ने सृष्ट ६५ में लिखा है कि तीर्थकरपद के गुण पूर्वले ग्रहण करके सिद्धपदमें नमस्कार की जाती है। विवेचक-तबतो “ अरिहंते कित्तइस्म" के बदले “सिद्धे कित्तइस्स" पढ़ना चाहिये, क्योंकि वह तो सिद्ध हो गये हैं। तथा " चउनीसंपि केवली" के ठिकाने “ अणते पि केवली" पढ़ना. होगा, क्योंकि सिद्ध तो अनंत हैं, इसघास्ते यह मानना ठीक नहीं है। तटस्थ-जघन्यपद २० तीर्थकर तो अवश्य ही मनुष्य क्षेत्र में होते हैं, ऐसा पार्वती जीने सत्यार्थ चंद्रोदय के ६४ पृष्टोपरि लिखा है इसवास्ते अरिहंतपद करके उनको वंदना मानी जावे तो क्या दोष है । विवेचक-यह भी उनका मानना ठीक नहीं है, क्योंकि आज कल भरत ऐरावत क्षेत्र में तीर्थकर कोई नहीं है। तथा पांच भारत और पांच ऐरावत क्षेत्र में मिल के दश ही तीर्थकरों का एक समय होना होसकता है, अधिक नहीं, और यदि महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा लेवे तो वहां भी उनके विचारानुमार जघन्य बीस तीर्थकर कदापि नहीं होसकते हैं, किंतु उत्कृष्टपदे बीस होसकते हैं क्योंकि महाविदेह क्षेत्रों में एक समय उत्कृष्ट बीस तीर्थंकरों का जन्म होता है, इससे अधिक नहीं, जब ऐसे हुआ तो जिनका जन्म एक समय में हुआ है भावनिक्षेप में भी वोही एक समय में विद्यमान हो सकते हैं, और नहीं, इसवास्ते जघन्यपद में बीसका मानना ढुंढकपंथ को हानिकारक हो जावेगा, क्योंकि जब जघन्यपद में बीस मानेंगे तो उत्कृष्टपदमें उससे अधिक जरूर ही मानने पड़ेंगे। और अधिक मानना इस मत में एक बड़ा भारी रोग पैदा करना है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy