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________________ (११) द्वारसिद्धांतवालावबोधः तथा सर्वोप्यत्र मया वृत्ति दृष्टोर्थो लिखितोस्तीति न तु स्वल्पोपि स्वमनीषिकया तथापि यत्किंचिदिह वितथ्यं भवेत्तबुद्धिमद्भिःशोध्यम्। इससे सिद्ध है कि इस बालावबोध के लिखनेवाले आचार्य पांचवें आरे में टीकाकार महाराज के पीछे हुए हैं और वह छद्मस्थ पुरुष थे, एक छद्मस्थ के वचन मानने और अन्य टीकाकार महासमर्थवान् पुरुषों के वचन नहीं मानने ऐसी श्रद्धा आत्मार्थी धर्मार्थी भवभीरु प्राणी की कदापि नहीं हो सकती है, इसवास्ते टीका को न मानने से मनःकल्पित अर्थ के तानने से ढुंढकमतानुयायी को क्या कहना चाहिये ? इस बात का न्याय हम वाचकवर्ग के ही स्वाधान करते हैं, क्योंकि निक्षेपों के विषय में इंद्र गोपालदारकादि के दृष्टान्त पार्वती ने लिखे हैं वह अनुयोगद्वारसूत्र के मूल में तो क्या बत्तीस सूत्रों के मूल में भी कहीं नहीं हैं, इस से सिद्ध है कि पार्वती ने बालावबोध से चुराये हैं और वालाबबोधवाला साफ टीका के अनुसार चलता है तो फिर टीका के मानने में क्यों लज्जा आती है ? गुड़ खाना गुलगुलों से परहेज ॥ और यदि धर्मदास जी, धर्मसिंह जी, लवजी, भीषण जी आदि ढुंढियों का लिखा टब्बा ही मान्य है तो वह सस लिख गये हैं या असस इसमें क्या प्रमाण ? तथा उन्होंने अपने मतलब के अधिकारार्थ टब्बे में नहीं डाले हैं इसमें क्या प्रमाण है ? प्रत्युत उन्होंने स्वार्थ सिद्ध करने के लिये कई बातें मनःकल्पित टब्बे में लिख दी प्रसक्ष दीखती हैं यथा रजोहरण की दसी कैसी और कितनी होवें इस का प्रमाण, रजोहरण की दंडी का प्रमाण, मुखवस्त्रिका का प्रमाण, चादर का प्रमाण, चोल पट्टक का प्रमाण इसादि बत्तीस सूत्रां क मूल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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