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________________ ( ६ ) यतः-पत्रं नैव यदा करीर विटपे दोषो वसंतस्य किं, नोलूकोप्यवलोकते यदिदिवा सूर्यस्य किं दूषणम् ॥ धारा नैव पतंति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणं, यत्पूर्व विधिनाललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः॥१॥ इस वास्ते यदि हमारा हितकारी शिक्षारूप लेख किसी को बुरा मालूम देवे तो इस में हमारा क्या दोष है ? उसके भाग्य की बात है। एक अश्वतर (खच्चर ) को किसी ने पूछा कि तेरी माता कौन है ! तब वोह बडे उत्साह के साथ बोला कि घोड़ी-पूछने वाले ने फिर पूछा कि तेरा वाप कौन है ? तब मन ही मन में शरमिंदासा होकर कहता है, चल यार, यारों के साथ ठठा नहीं किया करते, इसी तरह अपनी मान बड़ाई वाह २ मैं फूलकर यदि कोई ठीक २ बात कहे उसको अगर मगर लेकिन के नमकीने लफज़ों (शब्दों) में उड़ाया जावे वह कैसी शोक की बात है ? अच्छा वह जाने हमको क्या ? हम तो शुद्धान्तःकरण पूर्वक कहते हैं कि हमारा यह लेख किसी को बुरा लगे तो हम वार २ मिथ्यादुष्कृत देते हैं। निक्षेप विषयिक वर्णम्। निक्षेपों के विषय में पार्वती ने लंबा चौड़ा लिखकर स्था पत्रे काले किये हैं, क्योंके ढुंढियों के माने बत्तीस सूत्रों में से किसी भी सूत्र में ससार्थचन्द्रोदय में लिखे मूजिव वर्णन नहीं है, यदि है तो उस सूत्र का साफ २ पाठ दिखाना ढुंढयों महाशयों का अवश्य कर्तव्य है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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