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________________ ( १०५ ) पड़ेगा ! क्योंकि उसमें ऋषभादि महावीर पर्यंत तीर्थंकरों को नमस्कार किया जाता है, और इसी तरह साधु के प्रतिक्रमण ( पगाम सिज्झाय) में भी " नमो चउव्वीसाए तीत्थयराणं उसभाइ महावीर पज्जवसाणाणं " पाठ आता है, अब विचारना योग्य है कि वर्तमान भावनिक्षेप तो इनमें से एक भी नहीं है, सब मोक्ष को प्राप्त होगये हैं, सब में सिद्ध का भावनिक्षेप है, तो पूर्वोक्त पाठ, विना द्रव्यनिक्षेप के माने किस तरह सिद्ध होवेगा ? जब कि ऐसे ऐसे प्रत्यक्ष पाठ आगमों में आते हैं, तो भी स्थापना द्रव्यनिक्षेप में उपादान कारण रूप उत्सूत्र प्ररूपण करके लोकों को भ्रमजाल में फंसाने का उद्यम करने को निख्याल मोहनी के उदय की अधिकता दुर्भव्यता या अभव्यता का सूचक मानना प्रतिकूल नहीं मालूम होता है, क्योंकि मूर्ति का उपादान कारण पाषाण सिद्ध करने के वास्ते भगवान् का उपादान कारण अपनी कुमति प्रकट करके जो कुछ उत्सूत्र भाषण किया है, परमात्मा जाने इस बात से पार्वती ने कितना दीर्घ र बधा लिया होगा ? तटस्थ - क्या पार्वती जी का लिखा उपादान कारण ठीक नहीं है ? विवेचक - उपादान कारण का जो अर्थ लिखा है उस ही से तो भली प्रकार पार्वती की न्याय अनभिज्ञता सिद्ध होती है, भला क्यों न होवे ? जहां व्याकरण को व्याधिकरण माना जाता है गधाभास की सिद्धि भी तो वहां ही होती है ! जो अर्थ उपादान कारण का लिखा है बेशक पार्वती के गधाभास प्रकरण के बेवकूफाध्याय के अनभिज्ञ उद्देशे में लिखा होगा ! इतना भी पता पार्वती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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