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________________ ( १०२ ) सहित पुस्तक तो जरूर देखा होगा ! सो पुस्तक तो अब भी देख लेता है! परंतु पंडितों का जिन में भी सम्मति दाता का देखना तो ऐसा होता है कि अशुद्धता दूर करके शुद्धता बतलाई जावे, सो तो आकाशपुष्पवत् अभाव है ! और अबला की कृतिमें सम्मति देते हुए आप ही अबलावत् कुछक कलंकित हो गये हैं, और अवला की प्रशंसा करते हुए अपनी सबला विद्वत्ता को खो बैठे हैं ! अन्यथा अबला की भूल दूर करके अपनी सबला विद्वत्ता प्रकट करते । हां बेशक ! अबला की प्रशंसा करते हुए आपने दर्शाया है कि अबला (स्त्री) होकर ऐसा उद्यम करती है तो पुरुष को इस से भी अधिक करना चाहिये ! सो इस स्ववचनानुकूल आपको जरूर अशुद्धता का उपयोग नहीं करना चाहिये ! क्योंकि आपकी देवी पार्वती अशुद्धता का उपयोग नहीं रखती है तो आपको क्या जरूरत है ? बल्कि आपने तो अपने वचन को सिद्ध करने वास्ते देवी का अनुकरण यहांतक कर दिखाया है कि अपना सिद्धांत और स्वगुरुवाक्य तक भी भुला दिया है, और देवी की प्रशंसा लिख मारी है, सत्य है, “अर्थी दोष न पश्यति " आपको तो मूर्ति पूजा के निषेध से प्रयोजन है, चाहे कोई मातंगी भी खड़ी होजावे और मूर्तिपूजन का खंडन करने लग जावे, आप झटपट उसे सार्टिफिकट देने को तैयार हैं, बन इसी बात से आपने सम्मति प्रशंसापत्र प्रदान करे होंगे और कोई मतलब नहीं मालूम देता है। और यही बात प्रकटतया आपके दिये प्रशंसापत्र में पाई जाती है कि मूर्तिपूजा का इस पुस्तक में खंडन है, परंतु आपने तथा आपके स्वामीजी ने जो यह सिद्धांत स्वीकार किया है कि मूर्तिपूजा जैनियों मे शुरू हुइ है, इसपर पूर्वोक्त बात से आपने पानी फेर दिया है, सत्य है-कुसंग का फल खोटा ही होता है-दूसरे को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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