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________________ ( हद ) 66 सूत्रमें फरमाया है कि “ सब्बेसिपि नयाणं वतव्वं बहुविहं णिसामित्ता । तं सव्वनय विसुध्धं, जं चरण गुणडिओ , - साहु " भावार्थ- सर्व नयोंकी अनेक प्रकार की वक्तव्यता सुनकर सर्वनय विशुद्ध वस्तु को चारित्र में स्थित साधु ग्रहण करे, अर्थात् ज्ञाननय, क्रिया नय - निश्चयनय, व्यवहारनय — द्रव्यार्थिकनय, पर्यायार्थिकनयशब्दनय, अर्थनय – इनको एकांत माननेमें विध्यात्व होता है और स्याद्वाद संयुक्त मानने वाला सम्यग्दृष्टि होता है इसवास्ते सर्वनयविशुद्धवस्तु को चारित्र में स्थित साधु ग्रहण करे एकांत नहीं - परंतु पार्वती ने इस गाथा का जो अर्थ लिखा है सो ठीक नहीं, क्योंकि “णिसामित्ता” क्त्वा प्रत्ययांत इस शब्दका अर्थ तो लिखा ही नहीं है, कहां से लिखे ? और श्रीबुद्धिविजय जी ( श्री बूटेराय जी ) महाराज जी आदि के विषय में जो कुछ लिखा है सो भी उजाड़ में रोने के समान कोई नहीं सुनता ! पार्वती के पास क्या प्रमाण है कि वह नहीं पढे थे ? और माय: करके जो पढे हुए नहीं होते हैं वह ढूंढक पंथानुयायीवत् मानके बारे व्यख्यान वैगरह नहीं करते हैं, कदापि कारण वशात् करने का काम पड़ जावे तो पूर्वपुरुषों ने भाषा में जो वर्णन किया है। बही श्री सुनाते हैं, परंतु जैसे अज्ञढुंढिये " वायाविधुन्वहढो " इस दयावैकालिक के पाठ का अर्थ "बहेडे का वृक्ष" इस प्रकार का अमर्थ करते हैं, वैसे नहीं करते हैं | इसवास्ते जैनसाधुओं पर ऐसा आक्षेप करना नपुंसक से पुत्रोत्पत्ति की आशा करने समान है और जो पठित अपठित का दृष्टांत दिया है सो भी अज्ञताकी निशानी है, क्या वहां कोर्ट में कोई लिखत पढ़ने का काम पड़ जावे तो वह पंडित पढ़ लेवेगा ? कदापि नहीं ! बस इसी प्रकार अपठित शास्त्रों की बालका परमार्थ नहीं जान सकता है, क्योंकि जब वह पढ़ 17 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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