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________________ ( २ ) बोल के नाश करने में घरह, बोलने में फक्कड़, और करने में लाल बुजक्कड़ की कमी नहीं होवेगी, साधुजन दुख्यांगे, दुर्जन सुख पायंगे, राजा प्रजा को सतावेंगे, लोक लक्ष्मी से दुःख पायेंगे, मुंह मांगा मेघ नवरसेगा, दिन रात लोक तरसेगा, बल, वीर्य, पराक्रम, बुद्धि, आयु, पृथिवी, औषधियों का रस कस दिन प्रति दिन कम होवेगा ! इत्यादि जो कुछ कहा है सो प्रायः सब प्रयक्ष होरहा है, धर्म की अवनति तो ऐसी होती जाती है, कि जो कहने में नहीं आती है जिसमें भी जैनधर्म, कि जिसका है ऐन मर्म, जो देता है स्वर्ग अपवर्ग का शर्म, ऐसा ढीला होगया है, कि जिसके माननेवाले प्रायः छोड़ बैठे हैं सब कर्म, दिन प्रति दिन हास होकर अति सांत लेने लग गया है ! जिसका कारण चारों ओर से मारामार पड़ने से विचारा होगया लाचार, जिसमें समता का नहीं है पार, जिस अनुचित समता ने कर दिया इसे खुआर, किसीने नहीं लीनी झट सार, मिथ्यामतियों ने दिया पटक के मार, तो भी यह रहा ऐसा गुलज़ार, जो करता है बहार, रोते हैं अकल खोते हैं देख कर दुश्मन इसका प्रचार, क्या जाने सार, महामूढमिध्यात्वी गंवार, हीरे की सार, क्या जाने भंगी चमार ! देखिये ! किसी अकलमंद ने क्या अच्छा कहा है: " कदरे ज़र ज़रगर विदानद - कदरे जौहर जौहरी - शीशागर नादाँ च दानद - मेफ़रोशद संगहा - " قدر زر زرگر بداندقدرجوهر جوهري * شیشه گرنادان چه داند میفروشدسنگها बस इसी तरह सार असार परमार्थ के जाने विना मनमाने गपड़े मारनेवाला एक ढूंढपंथ विना गुरु, लवजी ने विक्रम संवत् १७०९ में मुंह पर कपड़े की टाकी बांध कर चलाया, बहुत भोले लोगों को भूलाया, देव दर्शन हटाया, अपना दृढ़तर कदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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