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________________ भूतकालका भारतीय जीवन आजसे सौ वर्ष पहले जब कि जीवन स्थिर, शांत और धर्ममय था, जब जीवन निर्वाहके साधन जन्मसिद्ध हककी तरह प्राप्त थे तब प्रत्येक मां-बापको अपने बाल-बच्चोंके लिए विचार आता और वह उनके आत्महितका। आत्महित के लिए अपने गुरु के पास शिक्षा दिलवा, कौटुम्बिक धर्ममय आबोहवाम वृद्धि कर, धार्मिक पर्वोमें बालकको भाग लिरा कर व धार्मिक संस्कार दे डालते। अतएव उस जमानेमें धर्मपर रुचि थी, धर्म-गुरुके प्रति पूज्यभाव था और उनको तारक माना जाता था। धर्म स्थान आत्म विकासके परम धाम माने जाते थे। इस तरह सर्वत्र सुख और शांति प्रवर्तती थी। वर्तमान जीवन आज परिस्थिति विपरीत हो गई है। आज समाज व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है । जीवन-निर्वाह मुश्किल हो गया है । पाश्चात्य शिक्षाका मोह है और कुटुम्बका धार्मिक वातावरण नष्ट हो चुका है। सुधारके बाह्य रूपमें लोक आकृष्ट है और आत्मभावना नष्ट हो गई है। - आजके नवयुवकके जीवनकी सार्थकता धर्म और धर्मगुरु इस स्वच्छन्द और स्वेच्छाचारके विरुद्ध हैं और अंकुश रूप हैं लेकिन इस अंकुशके लाभालाभका नवयुवकको ख्याल नहीं होने से वे उनसे हमेशा दूर रहनेकी चेष्टा करते हैं। उनको धर्म गुरुकी रहन-सहन, जीवन और वर्ताव अव्यवहारिक लगते हैं और आजीविका प्राप्त करने में, लग्नमें और पत्नीकी सेवामें सारा जीवन खतम कर देने में सार्थकता समझते हैं। धर्म और धर्म-गुरुके प्रति अरुचिके कारण ऐसी परिस्थितिमें जिनको उनका परिचय नहीं है और जिनने धर्म और धर्म गुरुओंकी महत्ता और आवश्यकतापर विचार नहीं किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034501
Book TitleDiksha Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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