SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ला. वासुदेवपुर खण्ड हमारी समझमें शासन पत्र कथित मंगलपुरी सोनगढ़ तालुका वाला मंगलदेव है पुनश्च मंगलदेव से ठीक नाक के सीधे उत्तरमें तापी तटपर बाजर नामक ग्राम सोनगढ़ तालुक । में है । यह प्रदेश घोर जंगल में है। यहांपर भी एक पुराणा दूर्ग है। अनेक मंदिर आदि के अवशेष यहांपर पाये जाते हैं। दूर्ग के पास नदी तटपर एक राजा की मूर्ति घोडे पर बनाई गई है । राजा के पीछे रानी बैठी हैं। एवं अन्य कई पुरानी मूर्तिओं के अवशेष पाये जाते हैं। हमारी समझमें शासन पत्र कथित विजयपुरी यहीं है। क्योंकि प्रथम तटस्थान तापी तटपर है। द्वितीय इस से कुछ दूरीपर परघट नामक दुर्ग हैं। जो पार्वत्यका अपभ्रंश है । पुनश्च यहां से लगभग दक्षिण में १० मील की दूरीपर वावली नामक ग्राम है जो हमारी समझमें शासन पत्र कथित वामरणवलीका रुपान्तर है क्योंकि इस बावली के दक्षिण और पूर्व में ताप्ती बहती है । एवं इसके पश्चिम खांडवन नामक ग्राम है। जो शासन पत्र कथित खांडव वनकी झलक दिखाता है | अतः हम निःशंक होकर वह सकते है कि विजयसिंहने अपने पित्रव्य के राज्यका अतिक्रमण कर संह्याद्रि पर्वत के इसी अंचलको अधिकृत किया था । १३१ इससे निर्भ्रान्त रूपेण सिद्ध हुआ कि वातापि कल्याण राज्यके वादी संह्याद्रि मण्डलका प्रदेश विजयसिंहने अधिकृत किया था । अतः शासन पत्रका यह कथन पूर्ण रूपेण स्वयं सिद्ध हुआ। परंतु प्रश्न उपस्थित होता है कि लाटवालों ने क्योंकर अधिकृत करने दिया । हम उपर बता चुके हैं कि लाट और पाटनका वंशगत विग्रह था । और कर्णदेव ने विक्रम ११३१ के अासपास लाट प्रदेशका नवसागरी विभाग अपने अधिकारमें कर लिया था। इसे प्रकट होता है। लावालों की शक्ति इस समय बहुत क्षीण होगई थी और उससे लाभ उठाकर विजयने दुर्गम पार्वत्य प्रदेशको अनायास ही अधिकार कर बैठा । हमारी समझ से शासनपत्र कथित बातों का पूर्ण विवेचन हो चुका और उनकी प्रमाणिकता निर्भ्रान्त रूपेण सिद्ध हो चुकी । एवं विजयका संबन्ध वातापि के चौलुक्य वंश के साथ है। उसका पिता वातापि पति विक्रमादित्यका छोटा भाई था । उसको उससे वनवासीका राज्य मिला था । परन्तु विग्रह करने के कारण छिन गया था । इन्हीं सब घटनाओं और विजय के राज्य प्राप्त करनेका वर्णन संक्षेप रुपसे शासन पत्र में किया गया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy