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________________ १८ पौलुक्य चंद्रिका ] घेरना चाहता था। क्योंकि वातापि से आगे बढ़तेहीं जया सिंहके पृष्ट प्रदेश पर गोकर्णपति जयकेशी वामभागपर कोल्हापुर और कराड के शिल्हार और सामने विक्रमकी सेना एवं दक्षिण भागपर संभवतः विक्रम के किसी अन्य सामन्तकी सेना अपडी होगी । पुनश्च हमारे पाठकों को ज्ञात है कि शक १०१० में वनवासी कमवंशी शान्तिवर्मा के अधिकार में था । यदे कदम बैश के विशेषका परिचय पा जाय तो अनयासही उसके वनवासी पर अधिकार करनेका रहस्य प्रकट हो जावेगा । हमारे पाठकों को ज्ञात है कि कदमवंशका वनबासो के साथ बहुत पुराना सम्बन्ध है। यहां तक की इनका विरुद वे जहां कहीं भी भाग्य विडंबन | बस गये वहां पर " वनवासी पुराधीश्वर" रहा । गोकर्ग पति जयकेशी और धारवार जिला के पुनुगाल ( होगले ) के कदम्बों का विरुद भी " वनवासी पुराधीश्वर" था । पुनुगा रुके कदमवंश के इतिहासपर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि पुनुगालके कदम्बों के अधिकार में वनवासी का शासन जयसिंह द्वितीय के समय से चला आता था । जयसिंहका सामान्त मयूरवर्मा द्वितीय और चामुण्डराय थे । सोमेश्वर प्रथम के समय उसकी रानी मयलाल देवी के सामान्त रुपले हरिकेशरी वर्मा वनवासीका शासन करता था। सोमेश्वर द्वितीय के समर्थ कीर्तिर्मा द्वितीय सःमान्त रूपने बनवासीका शासक था । परन्तु विक्रमके समय जयसिंहको वनवालीका राज्य मिला तो उसने कदन्त्रों के हाथसे सामान्त अधिकार छीनकर बलदेव को दिया । श्रतः पुमंगाल के कदम्बों का जयसिंहका विरोधी होना सस्वभावतः है । 1 जयसिंह के बाद शान्तित्रर्मा को पुनः हम शक १०१० में वनवासी का सामान्त पाते हैं । शान्तिवर्मा के अपने लेखों से प्रकट है कि वह पुनुगाल के कदम्ब वंशका था । और कीर्तिवर्माका सगा चाचा था। एवं उसके सन्तान हीन मरने पर पुनुगाल के कदम्व सिंहासन पर बैठा । शान्ति वर्मा विक्रमका सामन्त था । एवं उसका राज्य वनवासी के समीप था । और एक प्रकारसे बन वास और वातापि के मध्य पड़ता था। अब पाठक समझ सकते हैं कि जयसिंह के वनवासी छोड़ कर वापि आने और युद्धमें पराजय होने अथवा पूर्वही शान्तित्रर्मा कितनी आसानी के साथ वासीको विकृत करसकता है। क्योंकि वनवासी छीन जाने का पुनुगाल के कदम्बों को हृदयमें दुःख होगा इसका अनुमान करना कोई कठिन बात नहीं है । वे सदा वनवासी पर अधि-: कार करने के लिये अवतरकी अपेक्षा में बैठे होंगे। विक्रम और जया के विग्रह समान सु वसर उन्हें फिर कहां प्राप्त हो सकता था। अतः इस अवसर से लाभ उठाकर उन्होंने वनवासी पर अधिकार कर लिया होगा । उधृत विवरण से है कि युद्धमें पराभूत होने पश्चात जयसिंह को अपने राजय वनबाली में आनेका मार्ग का प्रतिरोध हो चुका था । इतनाही नहीं उधर जाना क्या जाने के लिये प्रयत्न करनाभी शत्रुरुपी कालके गाल में पडना था । अतः जयसिंहके लिए पराजयके पश्चात जंगलमें या विक्रम के शत्रुओं अथवा अपने किसी मित्रके आश्रम में जाने के अतिरिक्त कोई अन्य . म न था । अब विचारना है कि संभवतः उसे किस दिशा से सहाय प्राप्त करनेकी सम्भावना थी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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