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________________ १३१ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड पर दृष्टिपत करते ही प्रकट होता है कि जयसिं के अधिकारमें चौलुक्य राज्यका अध.श था। बसी दशा में यदि जयसिंहको संतोष न हआ और विक्रमके राज्य को हस्तगत करनेके ष: यंत्रमें प्रवृत हुआ था तो कहन. पड़ेगा कि जयसिंह वास्तवमें कृतघ्नी और दोषभागी था। एवं विल्हणने उसका जो चरित्र चित्रण किया है वह उससे भी अधिक कृतघ्नी और दोषभागी तथा निन्दनीय था। परन्तु विक्रमकी सोमेश्वरके राज्य अपहरण करनेवाली नीतिपर दृष्टिप.त करतेही वरवस मनोवृत्तिक प्रवाह श्रोत विपरीत दिश के प्रति गमनोन्मुख होती है और सहसा मुखसे निकल पड़ता है कि विक्रम जयसिंहके विप्रहका कारण जयसिंहके मत्थे नहीं वरण विक्रम के मत्थे पडता है। हमारी यह धारणा केवल अनुमानकी भीति पा ही अवलम्बित नहीं धरण इसको प्रबल और प्रत्यक्ष प्राधार है। . हमारे पाठकों को ज्ञात है कि चौलुक्य साम्राज्यका किशुवलाल प्रदेश जयसिंहके अधिकारमें था । और उसकी उपाधि युवराज थी । यद्यपि बाह्य दृष्टया जयसिंह और विक्रमके विग्रह पर इन दोनोंसे कुछमी प्रकाश नहीं पड़ता परन्तु अन्तरदृष्टिपात करते ही इनके विग्रह के गुप्त रहस्यका उद्घाटन हो जाता है । जयसिंहके युवराज उपाधिले उसका चौलुक्य साम्राज्यका भावी उत्तराधिकारी होना प्रकट होता है । और उपाधि उसे विक्रमके राज्यारोहन समय प्राप्त हुई थी। अतः अनयासहीं कह सकते हैं कि शक ६६८ में विक्रमने जब जयसिंहको भावी उत्तराधिकारी स्वीकार कर उमे चौलुक्य साम्राज्यके अन्य बहुत से प्रदेश दिया जो प्रायः समस्त राज्यका अधीश था । यहां तक कि विक्रमने वनवासी प्रदेशमी जयसिंहकों दे दिया जो उसके अधिकार में शक ६६२ अर्थात ३४ वर्ष से था। इतनाहों नहीं केशुवलाल प्रान्त जिसके अन्त गत चौलुक्य साम्राजका प्राणभूत स्थान पट्टडकाल था उसने जयसिंहको दिया। हमने पट्टडकालर स्थानको चौलुक्य साम्राज्य रूप शरीरका प्राण कहा है । अतः आशंका होती है कि हमारे पाठक आश्चर्य चकित हुए होंगे। इस लिये उनके आश्चर्यको शान्त करने के लिये निम्न भाग में पट्टडकालका महत्व प्रदर्शक विवरण देते हैं। आशा है उसके अबलोकन पश्चात वे हमसे अवश्य सहमत होगें। - पट्टडकाल नामक स्थान चौलुक्य राजधानी वातापिपुर (बादामी) से लगभग ८.१० मील की दूरी पर पूर्वोत्तरमें माल प्रभा नामक नदीके उत्तर तट पर अवस्थित है। पट्टडकालका नामान्तर किशुवलाल है । वास्तवमें ग्राम का नाम किशुवलालही था और पट्टडकल उसमें एक स्थान विशेष था। परन्तु पट्टकालके महत्वने किशुवलालका नामान्तर रूप धारण किया और क्रमशः अन्तम प्रधानता प्राप्त किया । विशुवलालके नामानुसार प्रदेशका नाम विशुर लाल पड़ा है। किशुवलालका शाब्दिक अथ "रतनोका नगर' और पट्टडकालका "राजाभिषेष."का स्थान है। ...... प्रारंभ से लेकर विवेचनीय समय पर्यन्त चौलुक्य इतिहासमा पालोचन प्रकट करता है कि किशुवलाल नामक र नके पट्टडकालमें प्रत्येक गजा और युवराजाका पटबंध गय निषेक हुधा एवं है । किशुबलाल प्रदेशको सदा युवराजके रहनेका गौरव प्राफ थाना नहीं विशुपसला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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