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________________ [ लाट बासुदेवपुर खण्ड मंगलपुर वसन्तपुर प्रशस्ति छायानुवाद. ....... .- कल्याण हो । भगवान श्रादि वाराह देव के लिये नमस्कार । सकल संसार के स्तुति पाव मानव्य गोत्री हारीति पुत्र, भगवान वाराह की कृपासे राज्य और वाराह लक्षण प्राप्त, एवं वाराह लक्षणकी छाया में शत्रु मण्डलको वशीभूत करने वाले, अश्वमेघ अश्वमृत्य स्नान द्वारा पवित्र शरीर, चौक्षुक्य वंश में दक्षिण पथ में वातापि नाथ महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री जयसिंह हुए। श्री जयसिंह देवका पादानुध्यात् उसका पुत्र महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक आहवमल्ल सोमेश्वर हुआ। श्री सोमेश्वर देवका पुत्र उसके पाद पद्मका भ्रमर वनवासी युवराज त्रयलोक्यमल्ल पल्लव परमानादि वीरलोम्ब श्री जयसिंह देव उपनाम सिंण देव हुआ। . . . २ - श्री चौलुक्य चंद्र जयसिंह देवको दैवकोप वसात् पाण्डवे के समान अपने अधिकार से वंचित होकर विपत्तकाल क्षेपनार्थ जंगल में जाना पडा । जयसिंह के वनवास काल में ही कुछ दिनो पश्चात उसका पुत्र केसरी विक्रम उपनाम विजयसिह मध्यकालीन सूर्य प्रभा ममान व्याप्त शौर्य एवं चौलुक्य वंश समुद्र को प्रफुल्लित करनेवाला पूर्ण चन्द्र अपने चचा के राज्य की सीमा पर अपने भुजबल से संह्याद्रि उपत्यका के भूभागको अधिकृत कर मंगलपुरी में वाराहध्वज को स्थापित कर उसे अपनी राज्यधानी बनायी। ३ - एकबार अपने राज्य के विजयपुर प्रान्त के विजयपुर नामक ग्रामे में निवास करते समय तापी नदी में स्नान करने पश्चात लक्ष्मीको वायु पिडीत दीप शिखा समान अस्थिर देख संसारकी असारता तथा मानव जीवनकी नश्वरता का अनुभव कर पुनश्च मनुष्य का परलोक में धर्म काही एक मात्र साथ देने वाला विचार अपनी माता और पिता तथा अपने पुण्य और यश वृद्धि की इच्छा से ४ - बनवासी से आये हुए अपने पुरोहित के पुत्र भारद्वाज गोत्री त्रिप्रवर तैतरीय शाखाध्यायी अध्वर्यु सोमशर्मा को विजयपुर प्रान्त नामक मण्डलके पार्बत्य विषयान्तपाती वामनवली नामक प्राम तृण गोचर आदी के साथ पूर्व दत्त ब्राह्मण दाय आदी को छोडकर जल द्वारा संकल्प पूर्बक दिया। समस्त राज पुरुषों, पटकिलों और कर्षकको इस प्रामकी श्राय ब्राह्मणकों विना किसी बाधा के देना चाहीए । ५ - इस ग्रामकी सीमा। पूर्व सूर्यकन्या नदी। दक्षिण" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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