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________________ चौलुक्य चंद्रिका ] १०२ प्रथम दाइल और वातापि अर्थात कलचुरियों और चौलुक्यों के दो दो हाथ होनेका परिचय हमे मंगली के राज्य समय में मिला था । पश्चात तैलप द्वितीय को भी कलचूरीओ के साथ मीडते देखते हैं। अनन्तर जयसिंह के पिता आहवमल्ल और दहल वेदी पति कणको रणाङ्गणमें हाथ मिलाते पाते हैं । जिसमें करण पराजित और माहवमल विजयी हुआ था । करणा और हमल के इस युद्ध का वर्णन कवि विल्हण ने बडे विस्तार के साथ किया है। बिल्हण के कथनमें यद्यपि अतिशयोक्ति आपादतः पाई जाती है तथापि एवुर की शिला प्रशस्ति से उसका अतः समर्थन होता है । पुनश्च सोमेवर द्वितीय के राज्यकालीन वेलगांव से प्राप्त लेख से मी हवमल के मध्य प्रदेश पर आक्रमण करनेका समर्थन होता है। इतनाही नहीं चेदि पति करणको आहे मल्ल के साथ मालवा के परमार राज पर आक्रमण करते पाते है । अतः हम कह सकते हैं कि श्राहवमल की मृत्यु पश्चात और सोमेश्वर द्वितीय तथा विक्रमादित्य के विग्रह समय चेदि पति करण के पुत्र और उत्तराधिकारी यशस्करण ने कुछ उत्पात मचाया हो जिसे जयसिंहने अपने शौर्य का परिचय दे पूर्ण रूपेण दाहल राज्यको अपने कोपानि काप्रा बनाया हो । जयसिंह और यशस्करण के युद्धका प्रस्तुत प्रशस्तिमें उल्लेख होने और आपपुर वाली में न होनेसे प्रकट होता है कि उक्त युद्ध शक १००१ और १००३ के मध्य हुआ था । पुनश्च प्रशस्ति हमें लाट पति को जयसिंह के शौर्यसे छिपनेके लिये पलायन करने को सदा कटिबद्ध रहना बताती है। कथित लापति कौन है। लाटपति की उपाधि बारपके वंशजों की थी। भयमीत होने वाला और अब विचारना है कि प्रशस्ति बनाया था । कीर्तिराज का बारप को लाट देशका सामन्तराज चौलुक्य राज्योद्वारक तैलप देव द्वितीय ने बारप के पौत्र कीर्तिराज वातापि की आधीनता यूपको फेंक स्वतंत्र बन गया था । शासन पत्र शक १४२ का हमे प्राप्त है। कीर्तिराज के बाद उसका पुत्र वत्सराज लाटकी गद्दी पर बैठा और उसके बाद त्रिलोचनपाल लाट देशका स्वामी बना । त्रिलोचनपाल का शासन पत्र शक ६७२ का हमें प्राप्त है । त्रिलोचनपाल के पश्चात हमें त्रिविक्रमपालका शासन पत्र शक ६६६ का उपलब्ध हैं । कवित तीनों लेख चालुक्य चंद्रिका लाट नन्दिपुर खण्ड में हम अविकल रूपसे उधृत कर चुके हैं। शक ६६६ के लेख से प्रकट होता है कि उक्त शक में त्रिविक्रमपाल लाटकी गद्दी पर पाटनवालोंको पराभूत कर बैठा था । उक्त शासन पत्र और प्रस्तुत प्रशस्ति के मध्य केवल तीन वर्षका अन्तर है । अतः प्रस्तुत प्रशस्ति कथित लाटपति बारपका वंशज त्रिविक्रमपाल है । संभव है, चेदिपति यशस्करणको शिक्षा देने के लिये जाते समय जयसिंह ने लाटपति त्रिविक्रमपालको मी कुछ अपने शौर्यका परिचय दिया हो और लाठ; उत्तर कोकण और मालवा की सीमा पर कुछ अपने सैनिकरत्व छोडा हो जिनकी उपस्थिति त्रिविक्रमपालको सदा सशंकित किये हो । बहुत संभव है कि प्रस्तुत प्रशस्ति कथित कोकण पति उत्तर कोकण का शिल्हरा राजा हो । यद्यपि हमने पूर्व में कोकण पति से गोवापति कदमवंशी जयकेशि का ग्रहण करनेका विचार प्रकट किया है परन्तु उत्तर कोकण के शिल्हरों का माण्डलिक होते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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