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________________ चौलुक्य चंद्रिका) कोण में लातेही स्पष्ट हो जाता है कि उक्त स्थानमें चार अक्षरोवाला कोई शब्द होना चाहिए संस्कृत साहित्यमें सौहार्य तथा मनो मालिन्य भाव प्रदर्शक चार अक्षरवाले अनेक शब्द पाये जाते हैं । परन्तु वातापि के चौलुक्यों और कांचीपुर वातो वंशगत विग्रहको दृष्टिकोण में लाते ही हम कह सकते है कि उक्त स्थान में सौहार्य भाववाले शब्दोका होना सर्वथा असंभव है। पुनश्च अमोघ वाक्यं के पश्चात कांचीपुर आने से स्पष्ट है कि उसके कांचीपुर विजय अथवा संहारादि भाव द्योतन करने वाला पद होना चाहिए। अतः हम सुगमता के साथ कह सकते हैं कि अमोघ वाक्यं कांचीपुर और त्रयलोक्यमल्ल ननिनोलम्ब के मध्य टुटे हुए स्थान पर चार अक्षर वाला विग्रह भाव प्रदर्शक "शब्द कालानल दावानल, संहारक, विध्वंशक तथा विमर्दक" आदि कोई पद होना चाहिए। हमारी समझमें अमोघ वाक्यं के पश्चात त्रयलोक्यमल्ल और कांचीपर के मध्य कालानल पद उपयुक्त प्रतीत होता है। हम देखतेभी है कि जयसिंहके शौर्यकी उपमा तुम्वुरू होसुरु वाली प्रशस्ति में दाहलके संबंध में इसी प्रकार के पदका प्रयोग किया गया है । अतः कथित वाक्य "अमोघ वाक्य कांचीपर कालानलं त्रयलोक्यमल्ल ननिनोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंहदेव" ज्ञात होता है । क्योकि इसका अर्थ होगा कि अमोघ वाक्य त्रयलोक्यमल्ल ननिनोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंह देव कांचीपुरीका कालानल अर्थात जलानेवाला। जिसका भावार्थ यह है कि शक ६६८ वाले अपने पिता और भ्राता के पराभव का बदला कांचीपुर के मान मर्दन द्वारा लेनेकी प्रतिज्ञाको पुरा करनेवाला जयसिह । इस वाक्यका इस प्रकार सुन्दर मनोग्राम तारतम्य संमेलन हो जाता है। इन बातों और अन्यान्य बातो को लक्ष कर हम कह सकते हैं कि शक ६६६ में इस प्रशस्ति के लिखे जाते समय जयसिंह पूर्ण वयस्यक और अपने पिता और भ्राताओं के शत्रओंका मान मर्दन करनेवाला था । प्रस्तुत प्रशस्ति में जो उसके पिताको राजा और उसे सामन्त रुपमें वर्णीत है इसके संबंध में इतनाही कहना पर्याप्त है कि जयसिहका पिता राजा और वह अपने पिता का सामन्त था । प्रशस्ति में जयसिहको पल्लव कुल तिलक प्रभृति लिखनेका उद्देश्य यह है कि उसकी माता पल्लव देशकी राज्य कुमारी थी । अथवा हम यह भी कह सकते है कि जयसिह अपने नानाके यहा दत्तक रूपसे चला गया था। अतः उसके नामके साथ पल्लव वंशोद्भव भाव द्योतक विरुद्ध लगे है। परन्तु ऐसा मानने से एक बड़ी भारी आपत्ति का सामना करना पडेगा । उक्त आपत्ति यह है कि जयसिह के बडे भाईओं विक्रम और सोमेश्वर के नाम के साथ भी हम उक्त प्रकारकी उपाधिओं को पाते हैं। और यदि कथित उपाधि अपने नाना के यहां चले जानेका भाव दिखाने वाली हैं तब तो तीनो भाइओं का अपने नाना के यहां जाना सिध्ध होता है। जो किसीमी दशा में माना नही जा सकता । अतः उक्त उपाधियां जयसिहकी माता के वंशका द्योतन करने वाली है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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