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________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड कि वह कर्ण रुप कुमुद नामक कमलके मूलको नाश करने वाला तुषार और चौलुक्य वंश रूप समुद्रको आनन्द देनेबाला चंद्र था। अब यदि इस वाक्यको शासन पत्र कथित अधोभाग वर्ती वाक्य "नूतन जलद पट समपाटनाम्बराच्छादिते वसुन्धरे स्वपितृव्य श्रीमन्महाराज जगत्पाल भुजाधात संचारित वायु विताडित शत्रुमेघान्धकार विनिर्मुक्त नागसारिका मण्डले स्वभुजबलार्णवे वाटपद्रक विषये वैश्वामित्री तटे दानवानी निमज्जिते " को एक साथ रखकर विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि कथित "कर्ण कुमुदाड़कर तुषारः” का वास्तविक तात्पर्य क्या है। इससे स्पष्ट है कि त्रिलोचनपाल के समय पाटन के चौलुक्यराज कर्णदेवने अपनी सत्ता का विस्तार कर दक्षिण में लाटदेशकी सीमा महि नदीका उलंधन कर वर्तमान वरोदा के पास बहने वाली विश्वामित्री नदीसे आगे बढकर अधिकार जमा लिया था। इतनाही नहीं संभवतः स्तंभतीर्थ “वर्तमान केम्बे" से समुद्र मार्गद्वारा नवसारी प्रान्तकोभी अपनी सत्ता के आधिन किया था। जहां से पाटण वालोंको प्रस्तुत शासन पत्र के अनुसार त्रिभुवनका भाई जगत्पाल-भतीजा पद्मदेव और पुत्र त्रिविक्रमपालने ठोकपीटकर निकाल बहार किया था । पाटणके कर्णदेवका नागसारिका मण्डलपर अधिकार होनेका प्रत्यक्ष प्रमाण-शक संवत ६६ का धमलाछासे प्राप्त शासन पत्र है। उक्त शासन पत्र द्वारा कर्णने धमलाछा ग्राम दान दिया है । अतः हम कह सकते है कि कर्णदेवने कथित दान नागसारिका विजयके उपलक्षमें दिया होगा। परन्तु पाटण वालोका अधिकार नागसारिका मण्डलपर क्षणिक था। क्योंकि इस समय के बाद बहुत दिनों पर्यन्त उनके अधिकारका परिचय नही मिलता। और यह शासन पत्रतो रही सही शंकाको भी नष्ट करता है । क्योंकि दोनों शासन पवोंमें केवल ३ वर्षका अन्तर है। शासन पत्रके ऐतिहासिक कथनोका विवेचन करने के पश्चात इसके अन्तर विवेचनमें हम प्रवृत्त होते हैं। शासन पत्र से प्रकट होता है कि शासन कर्ताके चचा जगत्पालने शत्रुओंका मान मर्दन कर नागसारिका मण्डलका उद्धार किया था। और त्रिविक्रमपालने अपने कथित चचाके लडके पद्मदेवको नागसारिका मण्डलके अष्टग्राम नामक विषयका सामन्त बनाया था। अब विचारना है कि अष्टग्राम नामक नगर का संप्रति अस्तीत्व पाया जाता है या नहीं। टोपोग्राफीकल मान चित्रपर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि नवसारीसे लगभग ४-५ मीलकी दूरीपर दक्षिण सुरत जिला के जलालपुर तालुकामें “ आठ" और उसी तालुकामें नवसारी से लगभग ७-८ मीलकी दूरीपर अष्टग्राम है। संभवतः इन दोनो गांवोमेंसे कोइभी एक प्रशस्ति कथित अष्टयाम हो सकता है। हमारी समझमें अष्टप्रामही प्रशस्तिका अष्टप्राम है । क्यों कि वहांपर पुरातन अवशेष पाये जाते हैं अष्टग्राम विषयके अतिरिक्त शासन पत्रमे शुक्लतीर्थ, नन्दिपुर विषय और पदत्त ग्राम हरिपुरका उल्लेख है। अब विचारना है कि इनका संप्रति अस्तित्व है या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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