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________________ [ लाट बन्दिपुर खण्ड . उक्त बारप राज ने लाट देशमे जाकर अपनि निति निपुणता और भुजबल से शत्रुओं का नाश कर प्रजा को आनंद वे राज कोशकी निरंतर वृद्धि की ॥ ६ ॥ ४५ उक्त विजयी. बाप राज का पुत्र पृथिवी का पालक गोरगि राज हुआ। जिससे अन्यान्य राजाओंने राजनितिक शिक्षा ग्रहण किया। उक्त गोरगिराज अपने वंशका प्रथम पृथिवी पालक हुआ और उसने अपने शत्रुओं के शिर पर पाद प्रहार किया ॥ १० ॥ पुनश्च गोरगिराज ने अपनी अधिकृता भूमि— जो बलवान दानव रुप बैरीओंसे माकान्त हुई थी का बाराह रूप विष्णु के समान उद्धार किया ॥ ११ ॥ जिस प्रकार भगवान अच्युत (कृष्ण) के सकाश से मदनने प्रदुम्न रूपसे अवतार लिया था उसी प्रकार गोरगिराज से प्रतिरूपवान कीर्तिराज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जिसने लाट देशका राज्य पाकर अपने सुन्दर कार्य रूप उज्वल कीर्ति के किरणों से दिशाओं को परिपूर्ण कर उज्वल बनाया ॥ १२ ॥ वंश तंतु में प्रोत चौलुक्य राजओं रूप मणिमाला के मध्य श्री कीर्तिराज नायकमारी अर्थात सुमेरु मणि के समान हुथा ॥ १३ ॥ कीर्तिराज के जन्म समय उसके मनोहर रूपको देख समस्त पुरजन और परिजन आनंदको प्राप्त हुए और जनता को उसके रूपकी प्रशंशा बारंबार करने परमी संतोष प्राप्त न होता था ॥ १४ ॥ इस प्रकार अलौकिक रूप पाने परमी वह परस्त्रियों का संसर्ग उच्छीष्ट अन्नके समान परित्याग करने वाला हुआ । १५ ।। /* उसके पाणीपादो में धर्म इस प्रकार आश्रित था जिस प्रकार मनुष्य के हृदय पर रत्नहार आश्रय पाता है । एवं श्रुति अर्थात वेद उसके मुखसे निश्रित होकर कपोल मार्ग से श्रवण रन्ध्र में प्रवेश करता था और उसका प्रवेश कर्णकुण्डलोंके कपाल पर संचार समान प्रतीत होता था ॥ १६ ॥ उसके गुणों से संतुष्ट हों धर्म महिधर के समान उसमें अचल रूप बनकर स्थित हुआ जिससे धर्मका उसमें सहज रूपसे चाश्रित अथात स्वाभाविक रूपसे स्थित होता प्रतीत होना था इस कारण धर्मकी अधिक वृद्धि हुई अन्यथा धर्मका वृद्धि प्राप्त करना कैसे संभव हो सकता है ॥ १७ ॥ ก इसमे अपने यौवन उमंगोम्म मनरूप बलवान गजेंद्र को संयम रूप अंकुश से वसीभूत किया था अतः मनके बसीभूत होकर शान्त होने पश्चात उसके सहाय बिना उसके इन्द्रियों को अपनी मर्यादा की सीमा का उलंघन करना असाध्य हो गया ॥ १८ ॥ वह अपनी सर्व व्यापक आत्मको भौतिक शरीर रूप व्यवधान से आच्छन्न होते हुएमी पकड मण्डल गगन के समान घटपट सर्व पदार्थों में प्रतिवाधित रूपसे व्याप्त मान अपनी लक्ष्मी का भजनो के बीच सदा निशंक होकर विभाग करता था । १६ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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