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________________ [प्राक्कथन अंग्रेजोंको घोर चिस्तामें पड़ना पड़ा था। इस समय बाजीरावने अपने मनके गुब्बारे जुल कर फोड़े। कानपूर आदि हस्तगत कर एकबार पुनः स्वाधीनता प्राप्त करनेकी चेष्टामें प्रवृत्त हुआ। महाराणी लक्ष्मीबाईने भारतीय स्त्री समाजका-अपने हाथ के बलका कौशल दिखना मुखोज्वल किया। तांतिया टोपीने खाट प्रदेश तक आकर अपने हाथके जौहर दिखलाये। परन्तु भारतीय संरक्षित नरेशोंने दिल खोल कर संघको साहाय प्रदान किया। संघ इस विप्लव समयमी विजयी हुआ। परन्तु संघका अन्त दूसरे प्रकारसे हुआ। भारत, इंगलेन्डकी राणी विक्टोरियाके आधीन हुआ। उन्होंने भारतकी वगडोर अपने हाथ ली। अनेक प्रकारका वादा किया। परन्तु उसका पालन किया या नहीं यह अज्ञेय नहीं है। अंग्रेज जाति भारतका शासन पर कौशलके साथ करती है इसने भारतकी सेनासे अंग्रेज साम्राज्यका खुब विस्तार किया। भारतीय सेनाने काबुल, बरमा, चीन, आफ्रीका में युध्द किया है। और वहांकी जातियोंको अंग्रेज साम्राज्य के आधीन बनाया है। इसने विद्या आदिका खूब प्रचार किया। रेल, तार, डाक आदि बना कर प्रजाको आनन्द दिया है। परन्तु सबसे अमूल्य वस्तु स्वातंत्र्यका अपहरण किया है। अंग्रेजोंके संसर्गसे भारतीयों के दृष्टिकोण पदल गए हैं। उनके हृदयमें जातीयताके अंकुर रोपण हो चुके हैं। वे स्वाधीनता और पराधीनताके अन्तरको समझ गये हैं। धर्म और जातीयता के संकुचित विचारके कुपरिणामसे वे अब अनभिज्ञ नहीं रहे हैं। परन्तु चिरकालसे आनेवाली फूट जन्य विशृंखला धर्मान्धता और ..नीत्वका भाव अभी उनका पिंण्ड नहीं छोड़ रहा है. तथापि दूरदर्शी और अनुभवी व्यक्तियों और स्वदेश और खजातिके निमित्त सर्वस्व परित्याग करनेवाले नव युवकोंका अभाव नहीं है। वे स्वातंत्र्य प्राप्तिके लिये प्रयत्नशील हो रहे हैं। जातीयः महासभा सन १८८५ से इसमें प्रयत्न शील है विगत जर्मन युद्ध समय भारतीयोंने अंग्रेजोंकी सहायता अन, जनसे दिल खोलकर की थी। १२००००० से अधिक भारतीय सेनाने युद्धमें भाग लिया . प्रान्सके अल्सास और लोरेन्समें जकर जर्मनोंके छक्के छुड़ा फ्रान्सकी लाज बचायी। सेपोटेमियामें जाकर तुर्कोंके दांत तोड़े । अंग्रेजोंने भारतीयोंकी शक्ति और राज्यभक्तिकी भूरि भूरि प्रशंसा की। उपलक्षमें शासन सुधार हुआ । परन्तु वह भारतीयोंको संतुष्ट तहकर सका। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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