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________________ પ્રરણ ૧૧ સું] છે. શિવાજી ચરિત્ર ૩૧ राय स्थिर करें [तथा] अपने देश के लिये खूब हाथ पाँव मारें ! तलवार पर और तदबीर पर पानी दें [ अर्थात् उन्हें चमकावें और ] तुर्कों को जवाब तुर्की में ( जैसे का तैसा ) दें । यदि तू जसवंतसिंह से मिल जाय और हृदय से उस कपट कलेवर के पैंडे पड जाय । [ तथा ] राना से भी तू एकता का व्यवहार करले तो आशा है कि बंडा काम निकल जाय । चारों तरफ से धावा करके तुम लोग युद्ध करो । उस साँप के सिर को पत्थर के नीचे दबा लो ( कुचल डालो ) । कि कुछ दिनों तक वह अपने ही परिणाम के सोच में पडा रहै [ आर ] दक्षिण प्रांत की ओर अपना जाल न फैलावे । [ और ] मैं इस ओर भाला चलाने वाले बीरों के साथ इन दोनों बादशाहों का भेजा निकाल लूँ । मेघों की भाँति गरजने वाली सेना से मुसलमानों पर तलवार का पानी बरसाऊँ । दक्षिण देश के पटल पर से एक सिरे से दूसरे सिरे तक इस्लाम का नाम तथा चिह्न धो डालूं । इसके पश्चात् कार्यदक्ष शूरों तथा भाला चलानेवाले सवारों के साथ । लहरें लेती हुई तथा कोलाहल मचाती हुई नदी की भाँति दक्षिण के पहाड़ों से निकल कर मैदानमें आऊँ । और अत्यंत शीघ्र तुम लोगों की सेवा में उपस्थित हूँ और फिर उससे तुम लोगों का हिसाब पूछूं । [ फिर हम लोग ] चारों ओर से घोर युद्ध उपस्थित करें और लडाई का मैदान उसके निमित्त संकीर्ण कर दें। हम लोग अपनी सेनाओं की तरंगों को, दिल्ली में, उस जर्जरीभूत घर में, पहुंचा दें। उसके नाम में से न तो औरंग ( राजसिंहासन ) रह जाय और न जेब (शोभा) न उसकी अत्याचार की तलवार [ रह जाये ] न कपट का जाल । हम लोग शुद्ध रक्त से भरा हुइ एक नदी हा दें [ ओर उस से ] अपने पितरों की आत्माओं का तर्पण करें । न्यायपरायण प्रागों के उत्पन्न 1 करनेवाले (ईश्वर) की सहायता से हम लोग उसका स्थान पृथ्वी के नीचे ( कब में ) बना दें। यह काम [ कुछ ] बहुत कठिन नहीं है । [ केवल यथोचित ] हृदय, आँख तथा हाथ की आवश्यकता है। दो हृदय (यदि ) एक हो जायें तो पहाड को तोड सकते हैं [ तथा ] समूह के समूह को तितिर बितिर कर दे सकते हैं। इस विषय में मुझको तुझसे बहुत कुछ कहना [ सुनना ] है, जिसका पत्र लाना ( लिखना ) [ युक्ति] सम्मत नहीं है । मैं चाहता हूं कि हम लोग परस्पर बात चीत करलें जिसमें कि व्यर्थ दुःख तथा श्रम न झेलें । यदि तू चाहे तो मे तुझसे साक्षात् करने आऊं [ और ] तेरी बातों का भेद श्रवणगोचर करूं । हम लोग बात रूपी सुंदरी का मुख एकांत में खोलें [ और ] मैं उसके बालों के उलझन पर कंघी फेरूं । यत्न के दामन पर हाथ धरें । [ और ] उस उन्मत्त राक्षस पर कोई मंत्र चलावें । अपने कार्य की [ सिद्धि ) को ओर का कोई रास्ता निकालें (और) दोनों लोंकों ( इहलोक तथा परलोक ) में अपना नाम ऊंचा करें। तलवार की शपथ, घोडे की शपथ, देश की शपथ तथा धर्म की शपथ करता हूँ कि इससे तुझपर कदापि ( कोइ ) आपत्ति नहीं आवेगी । अफजल खां से परिणाम से तू शंकित मत हो क्योंकि उसमें सचाइ नहीं थी । बारह सौ बड़े लडाके हब्शी सवार वह मेरे लिये घात में लगाए हुए था । यदि मैं उसपर पहिले ही हाथ न फेरता तो इस समय यह पत्र तुझको कौन लिखता । ( पर) मुझको तुझसे ऐसे काम की आशा नहीं है । ( क्योंकि ) तुझकोभी स्वयं मुझसे कोई शत्रुता नहीं है । यदि मैं तेरा उत्तर यथेष्ट पाऊं तो तेरे समक्ष रात्रि को अकेला 46 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034490
Book TitleChatrapati Shivaji Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaman Sitaram Mukadam
PublisherVaman Sitaram Mukadam
Publication Year1934
Total Pages720
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size45 MB
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