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________________ [१] पे आना जाना करते हैं, मगर सभा करनेको खड़े होते नहीं ३, सभामै सत्यग्रहण करनेकी प्रतिज्ञाभी करते नहीं ४, झूठे पक्षवालेको क्या प्रायश्चित्त देना सो भी स्वीकार करते नहीं ५, और श्रीकच्छीजैन एसोसीयन सभाकी विनती से भी सभा करनेको आप आते नहीं ६, और लेखीत व्यहारसेभी शास्त्रार्थ शुरू किया नहीं, ७, इसलिये थापकी हार समजी गई, महाशयजी ! ९ महीनोंसे शास्त्रार्थ करने के लिये आपसे लिखता हुं, मगर आपतो आडी २ बातें बीचमें लाकर शास्त्रार्थ करनेसे दूरही भटकते हैं, फिर हारमें क्या कसररही. जबतक दूसरी आड छोडकर शास्त्रार्थकरनेको सामने न आवोगे तबतकही आपकी कमजोरी समझी जावेगी. अभी भी अपनी हार आपको स्वीकार न करना हो, तो, थाणा छोड़कर आगे पधारना नहीं, शास्त्रार्थ करनेको जलदी पधारो. कंठशोष सुक विवाद व वितंडवादसे कागजकाले करनेकी व कालक्षेप करनेकी और व्यर्थ श्रावकों के पैसे बरबाद करवाने की कोई जरूरत नहीं है । २-- “ शास्त्रार्थ आपका और मैरा है, इसमें मुंबई के सब संघ को व आगेवानको बीचमें लाने की कोई जरूरत नहीं है, आप संघ. को बीचमें लानेका लिखो या कहो यही आपकी कमजोरी है, न सब संघ बीचमें पडे और न हमारी [ न्यायरत्नजीकी ] पोल खुले, ऐसी कपटता छोडो " इसतरहसे विज्ञापन नं० ९ वै के मैंरे पूरे सब लेख को आपने छोडदिया और भैरे अभिप्राय विरुद्ध होकर आप लिखतेहैं, कि " शास्त्रार्थ करना और फिर जैन संघकी जरूरत नहीं यह कैसे बन सकेगा " महाशयजी ! यह आपका लिखना सर्वथा अर्थ. का अनर्थ करना है, कौन कहता है जैन संघकी जरूरत नहीं है, मैरे ले. खका अभिप्राय तो सिर्फ इतनाही है, कि - मुंबई में सबगच्छों का, सब देशका, व सब न्यातोंका अलग २ संघ समुदाय होने से सब संघ आपके और हमारे शास्त्रार्थ के बीच में पंचरूपसे आगवान नहीं होसकता, मगर सत्यासत्यकी परीक्षाके इच्छावालोको सभामें आनेकी मनाई नहीं, सभामें आना व सत्य ग्रहण करना मुंबई के संघको तो क्या मगर अन्यंत्र केभी सब संघको अधिकार है, और इतनी बडी सभामें हजारों आदमियों के बीच में पक्षपाती व अल्प विचार वाले कोई भी किसी तरह का बखेडा खडाकरदेवे, या अपना निजका द्वेषसे आपस में गडबड करदे वे, तो मुंबईके संघको व आगेवानोंको सुरतके झगडे की तरह कर्मकथा, धनहानी, शासन हिलना व कुसुंप वगैरह ११ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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