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________________ [५] देबीहुई श्रीएवंतिपार्श्वनाथजीकी प्राचीनप्रतिमाकोफिरसेप्रकटकरी, तथा गुजरातम अणहिलपुर पाटणमें शिथिलाचारी चैत्यवासियोंने संयमधर्मको दबादियाथा,उसको श्रीजिनेश्वरसूरीजीमहाराजने वहां जाकर फिरसे प्रकटकिया और श्रीनवांगीवृत्तिकारक खरतरगच्छना. यक श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजने श्री स्थभनपार्श्वनाथजीकी प्रति. माको प्रकट करी. तैसेही कल्प-स्थानांग-दशा श्रुतस्कंध आचारांगादि आगोमें कहेहुए श्रीमहावीरस्वामिके च्यवनादि छ कल्याणकों. को, मेवाडदेशमें चितोडनगरमें शिथिलाचारी, लिंगधारी, चैत्य. वासियोने दबा दिये थे, उन्होंकोही श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराजने वहां जाकर फिरसे प्रकट किये हैं, सो शास्त्रविरुद्ध नवीन नहीं किंतु आगमोक्त प्राचीनही हैं. जिसका भावार्थ समझे बिनाही न वीन प्रकट करनेका कहते हैं, सोभी अज्ञानता जनक प्रत्यक्षही मिथ्या भाषणरूप यह बावीशवीभी बडी भूल की है। २३- जैसे अभी वर्तमानिक गच्छेोके पक्षपाती जन अहमदाबाद वगैरह शहरों में अपने गच्छके उपाश्रय वा धर्मशाला वगैरह मकान खाली पडे होवे तोभी अन्य गच्छवाले शुद्ध संयमी मुनियोंको उसमें ठहरने नहीं देते. और यति लोकभी अपने गच्छके आश्रित भगवान्के मंदिरमे अन्य गच्छके यतिको स्नात्र महोत्सवादि पूजा पढाने नहीं देते, जिसपरभी अन्यगच्छवाला यति अपनेगच्छके आश्रितमंदिरमेस्नात्रमहोत्सवादि पूजापढामकोआवतो, घोलोग मरणे मारणे- . शिरफोडनेको तैयार होतेथे, और कहतेथे,कि-ऐसाकभी पहिले हुआ नहीं और अभी होनेदेगेभी नहीं. यह बात गच्छोंके विरोधभावसे मा. रवाड, गुजरात वगैरहदेशो पहिले प्रसिद्धहीथी और कोई शहरोंमें अबीभी देखने में आतीहै । इसीतरहसेही पहिले चैत्यवासीलोगभी आ. पसके द्वेषसे या लोभदशासे अपने गच्छके आश्रित मंदिरमें अन्यगच्छवालेको स्नात्रपूजामहोत्सव,प्रतिष्ठादि कार्य नहींकरेने देतेथ.उस अवसरमें श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज गुजरात देशसे विहार क. रके मेवाडदेशमें विशेष लाभ जानकर जिनामाविरुद्ध शिथिलाचारी चैत्यवासियोंका अविधिमार्गका खंडन करतेहुए,जिनाशानुसार शुद्ध विधिमार्गका उपदेशद्वारा स्थापन करते हुए, भव्यजीवोंके उपकार केलिये चितोडनगरपधोर । तब वहां वाले चैत्यवासियोने और उ. न्होंके पक्षपाती भक्तलोगोंने अपनी भूल प्रकटहोनेके भयसे महाराज को शहरमें ठहरनेके लिये कोईभी जगह नहीं दिया और द्वेषबुद्धिसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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