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________________ [४३] षयको परेपूरा लिखकर पीछे उसपर अपना विचार सुखसे लिखें मगर शास्त्रोक पाठोवाली सत्यरवातोंके पृष्टकेपृष्ट छोडकर कहींकहीं की अधूरी २ बात लिखकर शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्राय विरुद्ध होकर संबंधबिनाके अधूरे २पाठ लिखकर या कुयुक्तियोंसे सत्यषा. तको झूठी ठहरनेका व भोलेंजीवोंको उन्मार्गमे गेरनका उद्यम न करें अन्यथा लेखकोंमें कितना न्याय व आत्मार्थीपना है और सम्य. क्त्वका अंशभी कितना है, उसकी परीक्षा विवेकी विद्वानों में अच्छी तरहसे हो जावेगा और उसको सभामें सिद्ध करनेको तैयार होना पडेगा फिर शास्त्रार्थ करने में मुह नहीं छिपाना विशेष क्या लिखें। ४६- उत्सूत्र प्ररूपणाके विपाक. शास्त्रार्थ करनेको सभामें सामने आना मंजूर करना नहीं, व अपना झुठा आग्रह छोडकर सत्य बात ग्रहणभी करना नहीं और विषयांतर करके कुयुक्तियोंसे शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करते हुए भोले जीवोंको उन्मार्गमें गेरने का उद्यम करते रहना. उससे दृष्टिरागी, अज्ञानी लोग चाहे जैसे पूजेंगे मानेगे मगर " उत्सूत्त भासगाणं बाहिणालो अणंत संसारो" इत्यादि तथा "सम्मतं उच्छि दिय, मिच्छत्तारोवणं कुणई निय कुलस्स ॥ तेण सयलो वि वंसो, कुर्गई मुह समुहो नीओ ॥१॥” इत्यादि देखो-उत्सूत्र प्ररूपणाकरनेवालेके बोधिबीज (सम्यक्त्व ) का नाश होकर अनंत सं सार बढताहै,और जिसने अपने कुलमें गणमें (गच्छमें ) समुदाय. में सम्यक्त्वका नाशकरनेवाली मिथ्यात्वकी प्ररूपणाकी हो वे, वो अपने सब वंशको, गच्छको, समुदायको, दुर्गतिमें गेरनेवाला होताहै । शिवभूति-लुंका-लवजी-भीखम वगैरह मतप्रवर्तकोंकी तरह इत्यादि भावको विचारो और संसारसे उदासीन भावधारण करने वाले आत्मार्थी भव्यजीवोंको मुक्तिमार्गका रस्ता बतलानेके भरोसे उन्मार्गका रस्ता बतलानेवाला 'शरणे आनेवालोंका विश्वास घातसे शिरच्छेदन करनेवालेसेमी अधिक दोषी ठहरताहै। और याद रखना दृष्टिराग, लोकपूजा मानता, व झूठा आग्रहका अभिमान परभवमें साथ न चलेगा. मगर उत्सूत्रप्ररूपक ८४ लाख जीवायोनीका घात करनेवाला होनेसे उसके विपाक अवश्यही भवांतर भोगबिना कभी नहीं छुटेंगे,इसबातपर खूब विचारकरना चाहिये । और जिनाशा. नुसार सत्यप्ररूपणा करके भव्य जीवोंको मुक्तिमार्गका रस्ता बतला नेवाले ८४लाख जीवायोनीके सर्वजीवोंकोअभयदान देनेसे महान्यु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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