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________________ [ ४१ ] क शास्त्रोंमें कहे हैं उन्होंकों, व अधिकमहीने के ३० दिन गिनती में लिये हैं, उन्होकोनिषेध करनेकेलिये. अपने धर्मबंधुओंके सामने व्याख्यानमें अशांति हेतुभूत व अमंगलरूप आपसके खंडनमंडन से विरोध भा वके झगडे खडेकरते हैं, उससे 'जैसे राजा वैसी प्रजा' की तरह यही गुण भाव कभी प्रवेशकरता है, इसलिये वर्षभर के झगडे पर्युषणा में लाकर कलेशकरके विशेष कर्मबंधन करते है । इसलिये साधुओंके और aasti दोनोंके एक एककी निंदा करनेमें, झूठी बडाई करनेमें, दूसरे का बिगाडने में, या कोई शासन उन्नतिके कार्य करें तो उसकी साह्यता करनेके बदले उसमें कोई भी अवगुण बतलाकर उसका खंडन करने में इत्यादि अमंगलरूप कलेशके कार्यों में वर्ष चला जाता है । इसलिये दिनोंदिन शाशनकी यह दशा होती हुई चली जाती है । और इससे अपने आत्मके कल्याणमें व परोपकार के कार्योंमेंभी विघ्न आते हैं । इसलिये मंगलिकरूप पर्वके दिनोंमें अमंगलिकरूप खंडनमंडनसंबंधी विरोधभाव करना सर्वथा अनुचित है । और अपनी स चाई जमानेकेलिये खंडनमंडन वैरविरोधके झगडेही करने की इच्छा हो तो पर्व दिन छोडकर अन्यभी बहुत दिन मौजूद हैं, मगर पर्युपणा पर्व अराधन करनेके लिये सबगच्छवाले श्रावक मुनिराजों के पास उपाश्रय धर्मशाला में आवें, उस वखत अपने आपसके खंडनमंउनके विरोधभाववाली बात चलाना, यह कितनी बडी अनुचित बात है। और मंगलिकरूपपर्वादन किसी प्रकार सेभी कलेशकारक खंडनमंडनके विरोधभाव से अमंगलिक रूप नबनकर शास्त्रानुसार शांति से पर्वकाआराधन होवे तो आत्माभी निर्मल होवे, वर्ष भी हर्षपूर्वक सुखशांतिसे जावे, बुद्धिभी अच्छी होवे, और आत्मसाधन व परोपकार भी विशेषरूप से होवे, संपसे शासन उन्नति के कार्यों में भी वृद्धि होने से वर्तमानिक दशाकाभी सुधारा होवे । इसलिये वार्षिक पर्वरूप पर्युपण शांतिमय सब जीवोंके साथ मैत्रिभाषपूर्वक आराधन करके उसमें मांगलिक कार्य करने चाहिये । और विरोधभाव के कारण रूप खंडनमंडन के अनुचित वर्तयको छोडनाही अपनेको व दूसरे भग्यजीवोकोभी कल्याणकारक है । और शासनकी उन्नतिकाभी हेतुभूत है. इसको जो आत्मार्थी होगा सो दीर्घ दृष्टिसे खूब विचारेगा और उपर मुजब शास्त्रविरुद्ध अनुचित व्यवहरको छोडकर; शास्त्रानुसार उचित व्यवहारको अवश्यमेव ही ग्रहण करेगा, दुसरोकोभी ग्रहण करावेगा. व ६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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